कुछ पुण्य न अर्जित किया कुछ साध्य साधन चुक गए कुछ सुरम्य दिन भी दीपक किनारे छिप गए देखता हूँ वक्त बीते मैं कहाँ था सोचता हो जीव कोई मैं उसे गिद्धों समान नोचता स्वयं, स्वयं को देखकर भ्रमित हो जाता हूँ रत्न सारे हारता हूँ...२ x
प्रेम, समाज और कल्पना का समागम..