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विफलता २

 कुछ पुण्य न अर्जित किया  कुछ साध्य साधन चुक गए कुछ सुरम्य दिन भी  दीपक किनारे छिप गए देखता हूँ वक्त बीते  मैं कहाँ था सोचता हो जीव कोई मैं उसे गिद्धों समान नोचता स्वयं, स्वयं को देखकर भ्रमित हो जाता हूँ रत्न सारे हारता हूँ...२ x

विफलता १

 मैं पुण्य लेखों के सदृश क्षण एक न विचलित रहा कुछ कर्म को कुकर्म कर क्षण एक ही चर्चित रहा निज मान गौरवगान कर अम्बर तले सोया पड़ा मैं देखता हूँ स्वप्न सारे नर्क देहरी पर खड़ा हाथ मलता ताल पर सीपी किनारे मारता हूँ रत्न सारे हारता हूँ...२