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विफलता २

 कुछ पुण्य न अर्जित किया  कुछ साध्य साधन चुक गए कुछ सुरम्य दिन भी  दीपक किनारे छिप गए देखता हूँ वक्त बीते  मैं कहाँ था सोचता हो जीव कोई मैं उसे गिद्धों समान नोचता स्वयं, स्वयं को देखकर भ्रमित हो जाता हूँ रत्न सारे हारता हूँ...२ x

विफलता १

 मैं पुण्य लेखों के सदृश क्षण एक न विचलित रहा कुछ कर्म को कुकर्म कर क्षण एक ही चर्चित रहा निज मान गौरवगान कर अम्बर तले सोया पड़ा मैं देखता हूँ स्वप्न सारे नर्क देहरी पर खड़ा हाथ मलता ताल पर सीपी किनारे मारता हूँ रत्न सारे हारता हूँ...२

समाज

मेरे जन्म से पहले पड़ोसी ने मांगी मेरे भाई के मृत्यु की दुआ जब हम स्कूल गए तब हमें ताश के पत्तो में उलझाया गया जब होस्टल गए तब हुई कोशिश हमें बर्बाद करने की पिता की नौकरी में कइयों ने डाला अड़ंगा कोशिश की गई हमसे हमारी जमीन छीनने की हमारे अच्छे नम्बर आने पर हमें गालियां दी गई हम वंचित रहे अपने कई संवैधानिक अधिकारों से पिता ने फसलें बोई कुछ ने उन्हें जलाया पिता ने संघर्ष किया कुछ सफलताएं मिली जीवन के कई बसन्त के बाद पिता के संघर्षों और उनकी स्नेहिल छाया में हम अपनी समृद्धि को लालायित हुए हुए उत्सुक व्यवस्थाओं को जानने को, समझने को हमने कई सपने देखे, समृद्धि के सपने, खुशहाली के सपने, हमारे सपने सिर्फ हमारे लेकिन पिताजी को संतोष नही था एक दिन यकायक शिक्षा पर बहस के दौरान उनके माथे पर उभरी थी गंभीरता की रेखाएं उन्होंने कहा था - कि तुम्हारी शिक्षा केवल हमारी समृद्धि के लिए नही अपितु आवश्यक है समाज की प्रगति के लिए भी । मैं अवाक था... कौन सा समाज ? किसकी प्रगति ?

क्षणिकाएं...🍁

गनीमत है कि दिन के हर पहर मुझसे अलग-अलग बर्ताव करते हैं... जैसे पक्षी लौट आते हैं अपने बसेरों पर शाम के ढलते ही तुम भी वापस आ जाती हो मेरे ख्वाबों में मेरी शर्तों के साथ.. उजाले कभी भी मेरे साथी नही रहे यही कारण है कि चांदना के पहर से ही तुम मुझसे दूर होने लगती हो... © अंकेश वर्मा

क्षणिकाएं...🍁

बेशक मैं दुनिया का सबसे अच्छा प्रेमी नही हूँ लेकिन आम के पेड़ों पर दोबारा बौर के आने से पहले अगर तुम आये तो ये देखोगे कि मेरा प्रेम तुम्हें बौर की खुश्बू की याद दिलाएगा.. © Ankesh Verma

में प्रेम माँगने आया हूँ...🍁

कुछ प्रेम भरे आलिंगन हैं कुछ विरह के मारे क्रंदन हैं कुछ यादें मीठी-खट्टी हैं कुछ गीली-पीली चिट्ठी हैं भर झोली उनको लाया हूँ मैं प्रेम मांगने आया हूँ.. कुछ सुप्त व्यथा के वन्दन हैं कुछ प्रेम में भीगे चंदन हैं जेबों में मेरे कंगन हैं जो प्रेम-पगे अभिनंदन हैं दुधमुहे प्रेम का साया हूँ मैं प्रेम मांगने आया हूँ पाने को केवल तुम्हें एक मैं हुआ द्रवित वर्षों अनेक बस केवल तेरा रूप देख खो बैठा हूँ अपना विवेक मैं सहज-व्यक्ति भरमाया हूँ मैं प्रेम मांगने आया हूँ । © अंकेश वर्मा

बदनसीब...🍁

ये आलम कुछ यूं है की मन मेरा हैरान है तमाम राहगीरों की अटकी पड़ी जान है बीच पटरी पर पड़ा कटा सर देख रहा न कमरे में रोशनी कोई न कोई रोशनदान है जिन्होंने ज़हान के हिफाज़त की ली थी कसमें बने तमाशबीन हैं , न कोई ईमान है मरने पर मुआवज़े में लाखों का झुनझुना है और तराज़ को मापने को न कोई मीज़ान है ख़ुमारी यूँ है सब पर दहशत की या ख़ुदा चीखों से तरबतर हैं, फिर भी बेजुबान हैं । ©  अंकेश वर्मा 

मृत्यु की अभिलाषा...🍁

शिव बटालवी मानते है की जवानी में मरना  बहुत ज्यादा खूबसूरत है जवानी में या तो प्रेमी मरते हैं या फिर मरते हैं बहुत अच्छे कर्मों वाले जो जवानी में मरते हैं वो या तो फूल बनते हैं  या बनते हैं तारे जवानी में मरना  बुढ़ापे की तंगहाली में मरने से ज्यादा अच्छा है लेकिन मैं बुढ़ापे में मरना चाहता हूँ जब मेरा शरीर मेरा साथ छोड़ने लगे निवाला निगलते समय  अचानक से वो मेरे गले मे फंस जाए और मैं मृत्यु को प्राप्त हो जाऊं  या फिर पोपले मुँह को हिलाते-हिलाते  मेरे जबड़े अकड़ जाएं जो कभी ठीक न हों या शरीर पर मोटी-मोटी नसों के उभरने के बाद  उनमे रक्त दौड़ने से मना कर दे मैं बच्चों को आधी सदी से ज्यादा समय की कहानी सुनाते हुए मरना पसन्द करूँगा या पंछियों को दाना डालते समय ठोकर लगकर गिरते हुए नहाते-नहाते नल पर फिसलकर मरना भी  अनोखा नही तो रोचक जरूर होगा बुढ़ापे में मरना मेरे लिए ताउम्र खुद को आजमाना माना जाए मुझे मृत्यु से भय नही  न ही मुझे मृत्यु का इंतजार है बस मुझे जवानी में मरकर  अपना बुढ़ापा खराब नही करना है । © अंकेश कुमार वर्मा

सियासत....🍁

दोस्तों की टोली से आई बुझी एक आवाज भूखों से क्यूँ इतना  कतराती है सरकार क्या वो डरती है  डरती है या छिपा रही है क्षोभ न कुछ कर पाने की या भूली है वो बात  कुछ खोकर पाने की या अपने जैसों को  हजम नही कर सकती या सब कर सकती है  पर नही है करती सरकारें तो बाबा होती हैं ख़ुदा के नेमत से भी  कुछ ज्यादा होती हैं थे मौन सभी मुँह खोले थे एक वृद्ध वहाँ बस बोले थे सरकारें वेश्या होती हैं दिखती नटखट  काम नही पर बिगड़े बोल में मधुशाला है कुर्सी के एक मोह ने उनके दिल पर घूंघट डाला है सरकारें ये ख़ुदा नही हैं सरकारें ये नही हैं जोगन  इनकी अपनी खुद की बंसी  इनका खुद का है वृन्दावन जग ले साथ नही चल सकती  पापों के कोखों में पलती एक यही तो सत्य जगत का बाकी सब कुछ माया है सरकारों का काम पूछने  कौन अभागा आया है । © अंकेश वर्मा 

वाजिब सवाल ।। गज़ल

सवाल ये नही है भाई कि सवाल क्या है सवाल ये कि, क्या सवाल होना चाहिए हिन्दू और मुसलमा के नाम पर झगड़े हैं इस बात पर हुक़्मरां से बवाल होना चाहिए तुम काबिल हो नाकाबिल वक्त की बात है तुम्हारे पास कोई एक कमाल होना चाहिए लोग कानून को तोड़ने का हुनर सिखाते हैं पर, देश में कानून का मिशाल होना चाहिए ये मीडिया बलात्कार पर भी जिरह करती है ये हुआ क्यों असल में ये सवाल होना चाहिए दूर गली के कोने में वेश्या फुलझड़ी बनी है वेश्य, वेश्या क्यों है ये मलाल होना चाहिए © अंकेश वर्मा

हे यार जुलाहे...🍁

हे यार जुलाहे संग तेरे  मैं नदी किनारे आऊंगा  तू करते रहना काम वहीं मैं  बंसी मधुर बजाऊंगा बिसुही के तीरे पड़े पड़े हम बिरहा मिलकर गाएंगे कुछ सत्तू होंगे कांदे संग हम खुशी खुशी से खाएंगे कुछ मछली होगी पानी में कुछ नदी किनारे के श्रोते ऊंचे बम्बे से कूद कूद  हम खूब लगाएंगे गोते एक पथिक वहां से गुजरेगा  मल्हार के साथ गुजरने को हम भी चढ़ लेंगे नैया में नदिया के पार उतरने को एक बात बता साथी मेरे  इस नदी किनारे नाते को क्या याद करेगा तू उस पल मुझे देख शहर को जाते को मैं आऊंगा वापस पक्का संग तेरे खूब विचारना है पर तब तक को अलविदा मित्र खाली आँचल भी भरना है बाबा की आंखें सूखी हैं भाई भी होता व्याकुल है कुछ नए सफर का स्वप्न सजा  मन मेरा प्रतिपल आकुल है पर याद रहेगा तो मुझको  देखूंगा तुझको अम्बर में नदिया का पानी उतरेगा  होकर अदृश्य समंदर में तेरे हाथों के कठिन ताप सा मुझको पथ में जलना है तब तक मीलों मुझको मीलों मुझको मीलों चलना है ...। © अंकेश वर्मा

ग़ज़ल...🍁

हमने सींचे थे गुलिस्तां किसी रोज़ को फ़क़त क्या ही पड़ी थी जब मर जाना है इक मंजिल को निकले थे घर से कभी खबर भी न थी कि किधर जाना है गोया कौमी इरादों से हाथ गंदे रहे  इसके हटते ही हमे भी सुधर जाना है  गाँव की याद आते ही वो किस्सा याद आता है जबां पर एक ही रट थी कि शहर जाना है बुलंदी की खोज को भी बस बिखरे रहे कहाँ मालूम था कि बिखर के बिखर जाना है  जो जियेंगे भी तो वो ख़ुदा की नेमत से मर कर भी सबको उधर जाना है । © अंकेश वर्मा

रिश्ते...🍁

सब शिक़वे जायज़ होते हैं, बस किस्से खाली होते हैं । कुछ आते खुद से भरे रंग कुछ करते रहे उजाड़ हमें कुछ रिश्ते खनक चूड़ियों से, कुछ रिश्ते गाली होते हैं सब शिक़वे जायज़ होते हैं बस किस्से खाली होते हैं कुछ की कीमत मधुशाला है, कुछ का आसान हृदयातल है कुछ होते ख़ुदा की नेमत से, कुछ केवल प्याली होते हैं सब शिक़वे जायज़ होते हैं बस किस्से खाली होते हैं । © अंकेश वर्मा

स्वप्न का वर्तमान...🍁

तालाब के किनारे  आ गया है तीरों का झुंड दूब में लोटते हुए छोटे बच्चों के पजामे उतारकर  उन बड़े लड़कों ने फेंक दिया है आस-पास से गुजर रहे बूढ़े देखकर हँस रहे हैं ,  ठिठोली कर रहे हैं कबड्डी में हाथ की उंगली ऐंठ गई है माँ पीटेगी हमें चप्पल से हमारी चोट से दुखी होकर वही बगल के बाग में है हाथ में ताश लिए, बड़े लोगों का झुंड वो हमें आकर्षित करते हैं मगर हम खुश हैं कबड्डी में नही तो बाउजी मारेंगे तीरियों के पीछे-पीछे नहर के मुहाने आ खड़े हुए ऊपर पुल से छलांग लगते ही मेरे ऊपर पानी ही पानी अरे ! मुझे तो तैरना नही आता, कोई बचाओ मुझे । मेरे हाथ क्यों नही चल रहे ? मैं उठकर बैठ गया , मेरे बैठते ही भाग गया ढेर सारे तीरियों का झुंड सूख गया नहरों का पानी  साथ ही भाग गए वो बाग, ताश के पत्ते कब्बडी का खेल भी भागा । मैं सपने में था, नहर केवल किताबों में है और माँ की चप्पल  सुनहरी याद बन गई है तीरियां अब केवल सपने में होती हैं वर्तमान में खड़ी है भूखी दुनिया मुँह फाड़े जबड़े निकाले निगल जाने को आतुर..। © अंकेश वर्मा

मंजिल...🍁

सुखद समय के आशा पथ पर चलते-फिरते राह बदलते नवल सृष्टि को रचते-रचते अपनों से दूरी हम सहते  नव-अंकुर के रहन-सहन को दुनिया का हर कोना छाने पेट भरे , भूखे मन खातिर तरस गए हम दाने दाने विधि की विविध व्याख्या करते जन-जन सम्मुख रीते-दीखे दुखती रग की टोह में प्रतिदिन भूजल के माफिक हम सूखे हर इच्छा को पूरा करने कौन हिमालय झुक जाएगा मंजिल को झोली में देने स्वप्न अभागा कब आएगा.। © अंकेश वर्मा 

माँ..🍁

ममता के जूठन की वो तीखी-सब्जी मीठी थी , हर गलती की बेलन से एक भरपाई होती थी ।। यादों की गहरे गोते में एक ठोकर सहसा लगते ही , लगा यूँ मानो उलझी-सुलझी एक पहेली जैसी थी ।। बर्बस अपने ओर बुला ले मनमोहक गुड्डी जैसी , सारे दुख के ताप सोख ले एक मीठी थपकी जैसी , याद अभागन उस महिला का बार-बार अब आता है । दिल मेरा जिस महिला को मां कहकर रोज बुलाता है ।। © Ankesh Verma

मन का फूल तुम्हे अर्पण है...🍁

आसमान की घोर लालिमा प्रथम पहर का रसी मनोरथ जख्मी कर कमलों में लेकर स्वयं आ गया ये भागीरथ जिसके निश्छल प्रेम- सूत्र का शीर्ष ललाट स्वयं दर्पण है मन का फूल तुम्हे अर्पण है चाँद सरीखा स्याह रात्रि में भोर भरे आदित्यों के संग कुछ सूखे पुष्पों की ढेरी संबंधों का ये मलिन रंग पालना के दुधमुंहे प्रेम का साथी अब तुमको तर्पण है मन का फूल तुम्हे अर्पण है । © Ankesh Verma

ग़ज़ल...🍁

कुछ है जो अरसे से चुभा करता है मिरा रक़ीब मेंरे लिए दुआ करता है सामना होने पर आंखें चुराता है न होऊं तो मुझे ही कहा करता है रुसवाईयाँ पर भारी है किरदार उसका हर एक बात से जकड़न को धुआं करता है है भले मिरे कत्ल के साजिश में मगर मिलने पर सजदे किया करता है..। © Ankesh Verma

प्रेम खत...🍁

मेरी कलम लैला से इत्तेफ़ाक नही रखती स्याही भी किसी पाजेब की झंकार नही रखती  विरह के गीत मेरे होंठों पर नही आते खून से सने मेरे खत भी सब सिमट जाते धड़कनें जोर-जोर से भी तो नही चलती मशाल-ए-इश्क़ भी दिलो में तो नही जलती बिफर के नींद मेरी मुझसे शायद रूठ गई सुहानी शाम मानो बेवफा भी बन ही गई हसीन ज़ुल्फ़ के छांव अब नही दिखते अभागे हाथ मेरे प्रेम खत नही लिखते..। © Ankesh Verma

राधा के प्रश्न...🍁

हे सखी अगर वो आएंगे रूठी बंसी बजवाऊंगी हो भले अड़े वो जाने को रुकने को तनिक मनाऊंगी निकट समय में कान्हा को मथुरा भी हमे छुड़ाने हैं कुछ प्रश्न मेरे अनसुलझे हैं उनके उत्तर भी पाने है क्या माखन मिश्री का चटक स्वाद अब भी है उनका मनभावन? है बहुत बड़ी मथुरा नगरी? है वृन्दावन जैसा सावन? क्या बरसाना की याद कभी लाती है दुख के बादल को? लाखों दासी से घिरे-घिरे क्या भूल गए यमुना जल को? क्या भूले-बिसरे भी उनके स्मरण में आती नही रास? या दरबारी षडयंत्रो में आता वृंदावन अनायास? बंसी के छुट जाने से सुदर्शन हाथ में आने से तीरों पर तीर चलाने से या कूटनीति समझाने से क्या जीवन ताजा होता है? या प्रेम अभागा होता है? रथचलित पांव जब रुकते है क्या तभी सुभागा होता है? क्या सच में सब जन का जीवन है खण्डों में बंटा हुआ? या सत्ता-सुख ही वो मद है जिससे प्रेमी है कटा हुआ? क्या राज काज अब कठिन हुआ? या उनको कठिन सुहाता है? या युद्धों की शंखनाद में जीवन भागा जाता है? ये प्रश्न मेरे अनसुलझे हैं इनके उत्तर ही पाने हैं जब कृष्ण यहां पर आएंगे ये द्वंद उन्हें सुलझाने हैं..। ©

ग़ज़ल...🍁

बिखरना किस्मत में था बेचारगी क्यों बेचारगी मेरी किस्मत पर रोती है ये कौन कहता है कि वो अकेली हुई मेरी तन्हाई उसके बिस्तर पर सोती है उसके किस्सों में उलझकर खफ़ा नही हूँ कभी-कभी जुदाई भी शगुन होती है मेरे महबूब की दरो-दीवारें भी जानती हैं बिछड़कर मैं ही नही गोया भी रोती है...। ©Ankesh verma

आहट...🍁

( अर्जुन और दुर्योधन दोनों को होने वाले युद्ध मे सहायता का वचन देकर कृष्ण ने विदा किया । तत्पश्चात सेनापति सात्यकि को अर्जुन और दुर्योधन से हुई बातचीत का सारांश बताया ) सेनापति सात्यकि ने कृष्ण से प्रश्न किया... प्रभु क्या सच मे आप इस महाविनाश को नही रोक पाए हैं ? नही बिल्कुल भी नही । ( कृष्ण ने बड़ी ही मधुरता के साथ उत्तर दिया ) मगर ऐसा क्यों, आप तो समस्त लोकों के स्वामी हैं, ऐसी कोई भी  घटना इस सृष्टि में घटित नही हो सकती जिसके लिए आप आदेश न करें फिर ये युद्ध आप के रोकने से क्यों नही रुक सकता ? शांत खड़े भगवान कृष्ण के माथे पर थोड़ी सी शिकन आई और वो पालथी मारकर वहीं जमीन पर बैठ गए । अपने आँखों को बड़ी ही कोमलता से बंद किया और फिर बड़ी तेजी से खोलते हुए गंभीर शब्दों में कहना शुरू किया... हे सेनापति  सात्यकि, संसार का कोई भी ममनुष्य चाहे वो पुरुष हो अथवा स्त्री, किसी देव अथवा असुर का गुलाम नही होता वह केवल और केवल अपने कर्मों का गुलाम होता है । हम देव और असुर मनुष्य के कर्मों का परिणाम होते हैं ।  मानवीय कर्म ही वो एकमात्र कारण है जिनसे देवों और दैत्यों की उत्पत्ति होती है, इस प्र

लाइट कैमरा एक्शन..🍁

दर्शनशास्त्र का एक बड़ा ही खूबसूरत वाक्य है कि दुनिया एक रंगमंच है और सभी मनुष्य इस रंगमंच के कलाकार हैं । हर व्यक्ति को चाहिए कि वो अपने किरदार का निर्वहन उचित तरीके से करे । इस मंच का सबसे रोचक पहलू यह है कि यहां कोई निर्देशक नही होता है जो कलाकारों की भूमिका को बताने का कार्य करता हो , यहां हर कलाकार स्वतंत्र होता है, अपने मनमुताबिक अपना किरदार चुनने को । किरदारों को गढ़ने के लिए आपके लिए कैमरा और स्पॉटलाइट बहुत ज्यादा जरूरी है । आपको चाहिए कि आप हमेशा कैमरा और स्पॉटलाइट के ही घेरे में रहे क्योंकि यही रंगमंच पर आपकी दमदार उपस्थिति को तय करता है । ये कैमरा और स्पॉटलाइट फिल्मों के कैमरा या स्पॉटलाइट से इतर आपके कर्तव्यों और कर्मों के मध्य झूला झूलते हुए प्रतीत होते हैं । आपके कर्तव्य और कर्म ही हैं जो आपको रंगमंच का हीरो और विलेन बताने में सहायक होते हैं । तो प्रयास करते रहिए रंगमंच पर बने रहने के लिए, स्पॉटलाइट में बने रहने के लिए और रंगमंच के प्रमुख कलाकार के रूप में राम,लक्ष्मण,भरत और सीता बनने की खातिर । अगर आप ऐसा नही कर पाते हैं तो आप एक सहायक अभिनेता के रूप में देखे जाते

तुम्हारा मिलना...🍁

तुम्हारा मुझसे मिलना, मृत्यु सा सुखदायी था  जहाँ सभी दुख तजे जाते हैं, जहाँ परमात्मा की आस होती है, जहाँ नश्वरता को त्याग कर  अमरता की राह मिलती है  तुम मुझे तभी मिली  जब मैं सिर्फ  तुम्हारा होना चाहता था । © ANKESH VERMA

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA

अपराधी...🍁

मन मस्तिष्क के मधुर-भाव को  हमने भी दुत्कार दिया साथ किया खूनी सर्कस का गुंडो का सत्कार किया अपनी पीड़ा को पीने को उलझी बाजी को सुलझाने प्रेम-राह से इतर जंग को हमने सीखे नए तराने जगती के सब सुख को तजकर हमने थामा हाथ नवल का जुर्म राह में पांव पसारे पीकर कड़वा घूँट गरल का रंगों के उलझे तिलिस्म में नित्य नए षड्यंत्र बनाए उन्मादों की चोटी पर चढ़ संविधान के शोक मनाए दुखती रग पर हाथ रखें हम  बेढब-सत्ता को बहलाने शिक्षा के मंदिर में घुसकर खड़े किए बेखौफ मुहाने हमने खींची निज हाथों से अपने मर्दन की रेखा उठा धुंध नैतिक शिखरों पर स्वप्न अभागा ये देखा नाश करें खुद अपनेपन का नाश हुआ जग ये सारा हाथ पसारे घूमे भारत अपने ही जन का मारा हे वीर! अगर होगा ऐसा श्री राम को क्या बतलाओगे रस प्रेम पगे मनमोहन को कैसे तुम मुख दिखलाओगे है समय शेष नव निर्मित कर खुद से खुद के नव-जीवन को अपनी आँचल से ढाँप सकल तपती वसुधा के पीड़न को...। - Ankesh verma

धर्मयुद्ध...🍁

जन-जन के जी गहराते हैं हम मनुष्य जान न पाते हैं हे कृष्ण जहाँ तुम रहते हो मस्जिद से तुमको डर है क्या... क्या वहाँ नही कोई गिरजा  या चादर से लिपटी माटी है केवल यज्ञों की वेदी या जलती बस घी की बाती क्या कोई टोपीधारी भी आता नही है अनायास क्या हम जैसे मानुष के जस करते रहते तुम ये प्रयास की अपनी धरती पर हम  देंगे न तुमको दिवा-याम क्या धर्म की नंगी तलवारों से छिड़ा हुआ ये संग्राम क्या तुम भी बाबर माफ़िक हो या मिशनरियों के मधुर लोभ क्या सच में तुम भूले प्रेम करते रहते उन पर क्रोध हे कान्हा गर ये मिथ्या है तो मानूँ क्या मैं नव पथ को ले साथ सभी रंगों को मैं चढ़ जाऊं धर्म सुपथ रथ को मैं निर्बल हूँ जो अपनों को रंगों में बांटा पाता हूँ गर करूँ प्रेम सब धर्मों को कायर कहलाया जाता हूँ हे कृष्ण तुम्हीं बतलाओ अब कोई उचित मार्ग दिखलाओ अब  धर्म-धर्म की जय-जय कर  उत्पात मचा न पाउँगा कटती है गर्दन कटे मगर मैं धर्म नही ला पाऊंगा..। - अंकेश वर्मा