तालाब के किनारे
आ गया है तीरों का झुंड
दूब में लोटते हुए
छोटे बच्चों के पजामे उतारकर
उन बड़े लड़कों ने फेंक दिया है
आस-पास से गुजर रहे बूढ़े
देखकर हँस रहे हैं ,
ठिठोली कर रहे हैं
कबड्डी में हाथ की उंगली ऐंठ गई है
माँ पीटेगी हमें चप्पल से
हमारी चोट से दुखी होकर
वही बगल के बाग में है
हाथ में ताश लिए,
बड़े लोगों का झुंड
वो हमें आकर्षित करते हैं
मगर हम खुश हैं कबड्डी में
नही तो बाउजी मारेंगे
तीरियों के पीछे-पीछे
नहर के मुहाने आ खड़े हुए
ऊपर पुल से छलांग लगते ही
मेरे ऊपर पानी ही पानी
अरे ! मुझे तो तैरना नही आता,
कोई बचाओ मुझे ।
मेरे हाथ क्यों नही चल रहे ?
मैं उठकर बैठ गया ,
मेरे बैठते ही भाग गया
ढेर सारे तीरियों का झुंड
सूख गया नहरों का पानी
साथ ही भाग गए
वो बाग, ताश के पत्ते
कब्बडी का खेल भी भागा ।
मैं सपने में था,
नहर केवल किताबों में है
और माँ की चप्पल
सुनहरी याद बन गई है
तीरियां अब केवल सपने में होती हैं
वर्तमान में खड़ी है भूखी दुनिया
मुँह फाड़े जबड़े निकाले
निगल जाने को आतुर..।
© अंकेश वर्मा
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