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जुलाई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

स्त्री विमर्श...🍁

रीति-रिवाज व परंपराएं सदैव धनात्मक नही हो सकती , कहीं न कहीं पर ये मनुष्य के लिए विनाशकारी सिद्ध होती हैं और जब बात स्त्रियों की हो तो समाज रीति-रिवाज , परम्पराओं व नैतिक मूल्यों के नाम पर उनके पैरों पर अपनी कसावट और भी मजबूत कर देता है..। स्वतंत्रता के नजरिये से स्त्री कभी भी अपने आप को शक्तिशाली नही महसूस कर पाई , यही कारण है कि स्त्री को " अंतिम उपनिवेश " की संज्ञा दी जाती है...। वहीं दूसरी ओर अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ के स्त्रियों का मन स्वतंत्रता की आंच से भी भय खाता है..। उनको दी गई स्वतंत्रता के साथ एक अदृश्य भय हमेशा उनके साथ चलता है और अंततः उसका उपभोग भी एक आज्ञापालन ही होता है...। जहाँ स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है वहाँ पर भी स्त्री-पुरुष संबंध काफी उलझे हुए होते हैं , जैसा कि पश्चिमी देशों में देखने को भी मिलता है...। दरअसल स्वतंत्र पुरूष यह तय नही कर पा रहा है कि स्वतंत्र स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाए , वहीं दूसरी ओर अनेको स्त्रियां भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करें..इसलिए वो कभी -कभी अपने लिए

गज़ल..🍁

उजाड़ गमजदा हयात* में अरमान ढूंढिये अन्ज़* पर मुम्ताज़ सा कोई निगहबान ढूंढिये गर हिज्र ही है आपकी अज़ाब* जान लो अग्यार* में भी अपना मेहमान ढूंढिये ला रही हों कराह जो जवानी की सलवटें  नौजवान सा कोई पासबान* ढूंढिये है यही लोगों का बहिस्त* आज कल एक फ़रामोश कोई मेजबान ढूंढिये तब प्यालों में तमाम उम्र काट दी तुमने  अब ताराज* मापने को मीज़ान* ढूंढिये.। ये गज़लकारी भी अब एक रोज़गार है वाह वाह करने को मेहरबान ढूंढिये..।। हयात*- जिंदगी /  अन्ज़*- धरती हिज्र*- विरह /  अज़ाब*- पीड़ा अग्यार*- अजनबी /  पासबान*- रक्षक बहिस्त*- जन्नत /  ताराज*- बरबादी मीज़ान*- तराजू                            - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

तुमसे मिलना और बिछड़ना अल्लाह ख़ैर कैसे हो दिन रात संवरना.? अल्लाह ख़ैर.। तुमसे भी मिल बस खुद से ही बातें की हैं तुम संग है हालात सुधारना.? अल्लाह ख़ैर.। तनी हुई तलवार हमारी गर्दन पर है अब भी है हालात बिगड़ना.? अल्लाह ख़ैर.। इक-इक कर खो गए यहाँ मनसूब हमारे खामोशी संग राह विचरना अल्लाह ख़ैर.। तुमसे बिछड़े हुआ है अरसा मौला जाने पर अब भी है रात जगन्ना अल्लाह ख़ैर..।। मनसूब*- संबंधित जगन्ना*- जागना                                   - अंकेश वर्मा

अंतर..🍁

अमीर लोग नही करते भगवान की चिंता न ही उन्हें फिक्र है कयामत के दिनों की वे भगवान से न्याय की उम्मीद भी नही करते उन्हें बस फिक्र सताती है अपने पैसों की अपने ठिगने कद और ऊंची नाक की और थोड़ी सी परिवार की भी पर गरीब के पास कुछ नही होता वो पड़ा रहता है परिवार की चिंता में दुखी होता है समाज के दुखों से उसे भिखारी रुलाते हैं वो बेहतर समझता है बीमारी से इतर मर जाना रोकती हैं ये चीजें उसे अमीर बनने से और भगवान भी उसे बहुत डराते हैं..।                                 - अंकेश वर्मा

प्रेम गीत गाएंगे..🍁

हो की बरखा जानलेवा या पवन हो मौत लाई तेज लहर पर बैठ संग-संग हो अभागन साथ आई हम सभी ही एक रंग के  बन ध्वजा लहराएंगे हम प्रेम गीत गाएंगे हों की बिगड़े बोल सबके या सियासत बोझ डाले तार दे सब दुखी जनों को या दिखाए स्वप्न काले पीड़ितों के हम बसंत बन धुरी इतराएंगे हम प्रेम गीत गाएंगे

घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

नए नजरिए..🍁

माँ खेत मे धान रोप रही हैं साथ में और भी कई महिलाएं हैं सब मिल कोई लोकगीत गा रही हैं पिताजी कभी इधर की मिट्टी उधर तो कभी उधर की इधर कर रहे हैं कभी मेढ़ को सही करते  तो कभी जुताई में न उखड़ी घास को  जोर लगा कर उखाड़ते कभी कांधे पर बोरा टांग खेत में यूरिया को छीटते भइया साईकल से बियाड़ लाते और खेतों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर फेंकते जाते इन सब से दूर खड़ा मैं बस इस मनोरम दृश्य को देखे जा रहा था काम कुछ भी नही था बस घुघरी खाते हुए लोगों को  देखना भर ही मेरे लिए काम था मेरे मस्तिष्क पटल पर मेरे बचपन के दिन उमड़ घुमड़ कर उभर रहे थे जब मैं भी पिताजी के साथ  मिट्टी में सराबोर रहता था अचानक मुझे आभास हुआ दुनिया को अपने अलग नजरिए से  देखने की कोशिश में मैं कब अपनी दुनिया से ही दूर हो गया पता ही नही चला..।                               - अंकेश वर्मा

मनुष्यता..🍁

मनुष्य का मरना नही है उतना भयावह जितना हौसलों का मरना विश्व पटल पर  मैं तौलता हूँ राजनेताओं को उनकी इस काबिलियत से कि किसने दी है वंचितों के हौसलों को उड़ान और किसने दफ्न किया है उनके भ्रूण रूपी स्वप्न को किसने बनाई हैं संभावनायें और कौन है मानवता को निगलने की फिराक में ये वो पैमाना है जो मुझे काबिल बनाता है लोगों को और राजनीति को  तुलनात्मक नजरिये से परखने में इन प्रक्रियाओं के विश्लेषण में मुझे सिद्धान्तों की आवश्यकता नही होती और मैं मनुष्यता को धारण करता हूँ..।                                           - अंकेश वर्मा

उधारू कलमकार🍁

जी हाँ, मैं एक उधारू कलमकार हूँ जैसे उधारू पैसे से मिलता है सुख पर शांति नही खरीद लो मनमाफिक चीजें पर उनपर संपूर्णता का दावा उचित नही कुछ ऐसा ही है मेरे जीवन में मैंने वो सब लिखा  जो मुझे लिखना चाहिए समाज की पीड़ा देश की क्रांति संग देह की क्रांति विश्व का प्रेम जंजीर में जकड़ी स्त्री लिखी लिखा टूटते और जुड़ते दिलो को अशिक्षित गाँवों को माँ के ममत्व को पिता के झुके कंधे ,  भूखे और लाचार मजदूर को और राजनीति के कालिख को भी परन्तु केवल लिखा किया कुछ नही न समाज को बदला न क्रांति का बना भागीदार न सिखाया प्रेम विश्व को न लड़ा समानता और स्वतंत्रता खातिर ये कर पाता तो संपूर्णता को प्राप्त करता गर कर पाया तो ये तमगा मिलेगा किन्तु अब तक जीवन की मैंने अनगिनत अधूरी कहानियां लिखी कई बिखरी कविताएं लिखी जो अपूर्णता का द्योतक है इसलिए संपूर्णता मिलने तक   मैं उधारू कलमकार हूँ..।                 - अंकेश वर्मा

बचपन तुम बेवफ़ा थे क्या..?

तुम जब से हमें छोड़ कर गए हो... वो दिन हमे हरपल याद आते हैं जो हमने संग संग बिताए थे..।। कुछ याद है तुम्हें..?? हम बारिश में छत से गिरते गंदे पानी से नहाते और मिट्टी में सराबोर हो जाते पापा की मार से बचने के लिए चाची के पीछे छिप जाते थे आम बीनने के लिए तो  कोसों दूर हो आते थे इमली के चक्कर में उस धोबी ने कितनी गाली दी थी कुछ भी नही याद है क्या..?? छोटे मेंढकों को सूइयों से  मोटा कर देते थे वो तीरी के पीछे  खेतों के  सैकड़ो चक्कर लगाए हैं वो कंचो की खनखनाहट भी जो मुझे सिक्को से ज्यादा प्यारी थी नदी में नहाने के लिए  भैंस को नहलाने का बहाना था अब भी याद नही आया..?? वो धान के फूस में भैया संग सोना रात रास्ते में डरना,भूत की कहानी बनाना स्कूल न जाकर रास्ते में बेर का पेड़ ढूढना उस मीठे और शांत उपवन में  मेरे संगी होने के बजाय तुम मुझे छोड़ कर क्यों चले गए थे.. बचपन…. तुम बेवफ़ा थे क्या..??                             - अंकेश वर्मा