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नए नजरिए..🍁

माँ खेत मे धान रोप रही हैं
साथ में और भी कई महिलाएं हैं
सब मिल कोई लोकगीत गा रही हैं
पिताजी कभी इधर की मिट्टी उधर
तो कभी उधर की इधर कर रहे हैं
कभी मेढ़ को सही करते 
तो कभी जुताई में न उखड़ी घास को 
जोर लगा कर उखाड़ते
कभी कांधे पर बोरा टांग
खेत में यूरिया को छीटते
भइया साईकल से बियाड़ लाते
और खेतों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर फेंकते जाते
इन सब से दूर खड़ा मैं
बस इस मनोरम दृश्य को देखे जा रहा था
काम कुछ भी नही था
बस घुघरी खाते हुए लोगों को 
देखना भर ही मेरे लिए काम था
मेरे मस्तिष्क पटल पर मेरे बचपन के दिन
उमड़ घुमड़ कर उभर रहे थे
जब मैं भी पिताजी के साथ 
मिट्टी में सराबोर रहता था
अचानक मुझे आभास हुआ
दुनिया को अपने अलग नजरिए से 
देखने की कोशिश में
मैं कब अपनी दुनिया से ही दूर हो गया
पता ही नही चला..।

                              -अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA