माँ खेत मे धान रोप रही हैं
साथ में और भी कई महिलाएं हैं
सब मिल कोई लोकगीत गा रही हैं
पिताजी कभी इधर की मिट्टी उधर
तो कभी उधर की इधर कर रहे हैं
कभी मेढ़ को सही करते
तो कभी जुताई में न उखड़ी घास को
जोर लगा कर उखाड़ते
कभी कांधे पर बोरा टांग
खेत में यूरिया को छीटते
भइया साईकल से बियाड़ लाते
और खेतों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर फेंकते जाते
इन सब से दूर खड़ा मैं
बस इस मनोरम दृश्य को देखे जा रहा था
काम कुछ भी नही था
बस घुघरी खाते हुए लोगों को
देखना भर ही मेरे लिए काम था
मेरे मस्तिष्क पटल पर मेरे बचपन के दिन
उमड़ घुमड़ कर उभर रहे थे
जब मैं भी पिताजी के साथ
मिट्टी में सराबोर रहता था
अचानक मुझे आभास हुआ
दुनिया को अपने अलग नजरिए से
देखने की कोशिश में
मैं कब अपनी दुनिया से ही दूर हो गया
पता ही नही चला..।
-अंकेश वर्मा
साथ में और भी कई महिलाएं हैं
सब मिल कोई लोकगीत गा रही हैं
पिताजी कभी इधर की मिट्टी उधर
तो कभी उधर की इधर कर रहे हैं
कभी मेढ़ को सही करते
तो कभी जुताई में न उखड़ी घास को
जोर लगा कर उखाड़ते
कभी कांधे पर बोरा टांग
खेत में यूरिया को छीटते
भइया साईकल से बियाड़ लाते
और खेतों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर फेंकते जाते
इन सब से दूर खड़ा मैं
बस इस मनोरम दृश्य को देखे जा रहा था
काम कुछ भी नही था
बस घुघरी खाते हुए लोगों को
देखना भर ही मेरे लिए काम था
मेरे मस्तिष्क पटल पर मेरे बचपन के दिन
उमड़ घुमड़ कर उभर रहे थे
जब मैं भी पिताजी के साथ
मिट्टी में सराबोर रहता था
अचानक मुझे आभास हुआ
दुनिया को अपने अलग नजरिए से
देखने की कोशिश में
मैं कब अपनी दुनिया से ही दूर हो गया
पता ही नही चला..।
-अंकेश वर्मा