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मई, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अच्छा हुआ...

तुझे भी तुझ सा मिला  अच्छा हुआ तुझसे बात की और चुप भी रहा अच्छा हुआ मेरी दुखती रिसती रग भी तुझे बद्दुआ न दे पाई फिर भी जो न सोचा वो हुआ अच्छा हुआ सुना है वो कहानियों का  शौकीन नही है तुम्हारे साथ तो है पर तुम्हारे साथ का शौकीन नही है वो सुनकर भी तुम्हे  अनसुना करता है अच्छा हुआ वादा दूर का किया है उसने तुम्हे नही  तुम्हारा जिस्म जिया है तुम रोती हो  तो मनाता भी नही अच्छा हुआ तुझे भी तुझ सा मिला अच्छा हुआ तुझसे बात की और चुप भी रहा अच्छा हुआ...!             -अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

इश्क़ के शहर में ग़मों की तेज धार है जाने क्यों सभी को बस इसी का इंतजार है.। उसके आने की अब कोई खबर भी तो न रही हमें फिर क्यों उसी का इज्तिरार-ए-दीदार है.। मिरे गाँव के हालात अब भी तो नही बदले मिरे गाँव मे अब भी  धोवन पाने की कतार है.। हम खुद-ब-खुद चाहते है उसके पैरों का जूठन ये ज़मीर इस कदर सियासत का इख़्तियार है.। ये जिंदगी जो रही बस कुछ दिन की रही मिरा वो कॉलिज ही मिरी ख़ुशी का इख़्तिसार है.। हम दोस्त भी अब पहले से न रहे ये मख़मूर जाने कितने सवालों से मिरा ये दामन दागदार है.। और मिरे वालिद ने भी तो मिरे लिए रखें होंगे रोज़े एक वो ही तो हैं जो मिरे गमगुस्सार हैं..।।                                            -अंकेश वर्मा

नालायक बच्चा...😢

दिन ढलते ही लौटते हैं पक्षी अपने बसेरों की ओर चहचहाहट करते हुए सारे जन भी  लौटते हैं अपने घरों को खुद को आराम देने तब खुद सूरज भी छिपने लगता है  बादलों की आगोश में  क्योंकि वो भी डरता है अंधेरे से तब मेरे भीतर का  इक नालायक बच्चा खोलता है अपनी आँखें जो कुछ नही कर पाता खुद को असहाय पाता है और बस रोता है समाज पर , राजनीति पर , प्रेम पर और कभी-कभी खुद पर भी इस तरह वो बिता देता है रात्रि का एक पहर फिर वो नालायक बच्चा काटता है शहर के चक्कर आवारों की भांति कुछ नया खोजने को कभी दूसरों के भीतर कभी अपने ही बिस्तर के सिराहने कभी उपन्यास की कहानियों में तो कभी खुद की लिखी पंक्तियों में अंततः थक हार सो जाता है वो इक नई रात्रि के दूसरे पहर के इन्तजार में क्योंकि उसे उजाले हकीकत लगते है जो उसे बहुत डराते हैं..!                         - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

कोई कितना भी जकड़े मैं बस छूट जाता हूँ मैं रिश्तों के भंवरजाल से बहुत दूर जाता हूँ.। मुझे मिरे गाँव की चीखें रात जगाती हैं मैं प्याले में गज़ल भरता हूँ और डूब जाता हूँ.। निकलना तो चाहूँ मैं मुल्क की सियासत बदलने मगर दौलत के नशे में खुद चूर जाता हूँ.। अजब है मिरा अपनापन जताने का तरीका भी मैं जिसे इश्क़ करता हूँ उसी को भूल जाता हूँ.। ये तिरे-मिरे बीच जो गलतफहमियों की दीवार है उसे तोड़ना तो चाहूँ मगर खुद टूट जाता हूँ.। मिरी बदनसीबी मिरा पीछा नही छोड़ती मख़मूर मैं जिसे पास चाहूँ उसी से दूर जाता हूँ..।                                            - अंकेश वर्मा