दिन ढलते ही
लौटते हैं पक्षी
अपने बसेरों की ओर
चहचहाहट करते हुए
सारे जन भी
लौटते हैं अपने घरों को
खुद को आराम देने
तब खुद सूरज भी
छिपने लगता है
बादलों की आगोश में
क्योंकि वो भी डरता है अंधेरे से
तब मेरे भीतर का
इक नालायक बच्चा
खोलता है अपनी आँखें
जो कुछ नही कर पाता
खुद को असहाय पाता है
और बस रोता है
समाज पर , राजनीति पर , प्रेम पर
और कभी-कभी खुद पर भी
इस तरह वो बिता देता है
रात्रि का एक पहर
फिर वो नालायक बच्चा
काटता है शहर के चक्कर
आवारों की भांति
कुछ नया खोजने को
कभी दूसरों के भीतर
कभी अपने ही बिस्तर के सिराहने
कभी उपन्यास की कहानियों में
तो कभी खुद की लिखी पंक्तियों में
अंततः थक हार सो जाता है वो
इक नई रात्रि के दूसरे पहर के इन्तजार में
क्योंकि उसे उजाले
हकीकत लगते है
जो उसे बहुत डराते हैं..!
- अंकेश वर्मा
लौटते हैं पक्षी
अपने बसेरों की ओर
चहचहाहट करते हुए
सारे जन भी
लौटते हैं अपने घरों को
खुद को आराम देने
तब खुद सूरज भी
छिपने लगता है
बादलों की आगोश में
क्योंकि वो भी डरता है अंधेरे से
तब मेरे भीतर का
इक नालायक बच्चा
खोलता है अपनी आँखें
जो कुछ नही कर पाता
खुद को असहाय पाता है
और बस रोता है
समाज पर , राजनीति पर , प्रेम पर
और कभी-कभी खुद पर भी
इस तरह वो बिता देता है
रात्रि का एक पहर
फिर वो नालायक बच्चा
काटता है शहर के चक्कर
आवारों की भांति
कुछ नया खोजने को
कभी दूसरों के भीतर
कभी अपने ही बिस्तर के सिराहने
कभी उपन्यास की कहानियों में
तो कभी खुद की लिखी पंक्तियों में
अंततः थक हार सो जाता है वो
इक नई रात्रि के दूसरे पहर के इन्तजार में
क्योंकि उसे उजाले
हकीकत लगते है
जो उसे बहुत डराते हैं..!
- अंकेश वर्मा
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