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गज़ल..🍁

कोई कितना भी जकड़े मैं बस छूट जाता हूँ
मैं रिश्तों के भंवरजाल से बहुत दूर जाता हूँ.।

मुझे मिरे गाँव की चीखें रात जगाती हैं
मैं प्याले में गज़ल भरता हूँ और डूब जाता हूँ.।

निकलना तो चाहूँ मैं मुल्क की सियासत बदलने
मगर दौलत के नशे में खुद चूर जाता हूँ.।

अजब है मिरा अपनापन जताने का तरीका भी
मैं जिसे इश्क़ करता हूँ उसी को भूल जाता हूँ.।

ये तिरे-मिरे बीच जो गलतफहमियों की दीवार है
उसे तोड़ना तो चाहूँ मगर खुद टूट जाता हूँ.।

मिरी बदनसीबी मिरा पीछा नही छोड़ती मख़मूर
मैं जिसे पास चाहूँ उसी से दूर जाता हूँ..।

                                          - अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA