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अक्तूबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गज़ल...🍁

ये मैं कैसे व्यूह में उतर गया वक्त ने मारा या मैं सुधर गया तेरी मोहलत दरियादिली थी तेरी रुसवाई से मैं बिखर गया मेरे दोस्त ने पूछा था तेरे इश्क़ को मैं टूट गया था इसलिए मुकर गया तुझसे मुलाकातें कभी रास न आई सो न तेरे पास ठहरा न घर गया जहाँ से परिंदे तेरी खबर लाते थे मैं वक्त का मारा इधर गया उधर गया तेरी सांसों की दरीचे की खोज में रहा तेरे साथ को मचला मैं जिधर गया तुझे न देखा तो पीर आंखों में उतर आई तुझे सोचा तो गला भर गया..। © अंकेश कुमार वर्मा

वक्त तुम्हारा..🍁

अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। अंधियारे में सड़क किनारे हाथ पकड़ के चलते जाना मीठी तीखी बातों के संग किस्से भी भरमार सुनाना मिल-मिल कर जज्बात हमारा खुद ही खुद में घुल जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। रात गए तक बातें करना दिल को बड़ा हंसाता है छोटी से छोटी गलती पर भर कर आंख दिखता है रिश्तों के उलझे धागों में मनमर्जी से बिंध जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। उसकी गलती पर हंसता दिल खुद पर बस खिसियाता है सावन हो या जेठ दुपहरी बरखा में खूब नचाता है चाँद सरीख़ी बातें करता पलकों में खो जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। बस्ती, गलियां और घरों में नई उमंगे भर जाती है तार तार हो मन की पीड़ा खुशियों के सम्मुख आती है घनी रात का जुगनू बन कर पथ भी औचक बन जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता

वीर शिखंडी के घेरे में...🍁

वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखे हैं..। काल अमर कर निज कर्मों से व्याध-गान को अपनाने को खुले केश सी बिंधी जटायें वचनों-वचनों मर जाने को सत्ता की भूखों में तपती लाखों बृहलाएँ देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखे हैं..। हाथ कटारें तीखी लेकर सूर्य-तपिश को कर शर्मिंदा नरमुंडों की सजी थाल से प्रकट हो रहे मुर्दा-जिंदा सिंहनाद से गर्जन करते शौर्य के मंजर देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखें हैं..। राह सजीली पत्थर बनते वक्त-वक्त शर्मिंदा करते जीवन के विकराल समर में पतित आश की जुगनू बनते स्याह सी मालिन तलवारों संग धर्मों के रक्षक देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखें हैं....। © Ankesh Verm a

गज़ल..🍁

इनके नहीं जा उनके पहलू में बैठ जा ये उजाले जा टूटी सी झोपड़ी में बैठ जा जहाँ गमों की तेज आंधी ने उजड़े हैं आसियाने ले खुशी के गुबार जा वहीं पर बैठ जा वो भूखे कटोरे लिए बच्चे अब ऊंघ रहे हैं जा उनकी आंखों में आस बन बैठ जा और कर रोशन उन स्याह काली गलियों को उठा के सर पे सूरज जा गली में बैठ जा देख वो कमजोर रिक्शा अब रुक रहा है तोड़ मजबूरी की जंजीर वहीं पैरों में बैठ जा भूखा दुखी किसान है कैद में सरपरस्ती के ले रख दस्तार उनके सर और क़दमों में बैठ जा मिन्नत भी अब स्वाधीनता की निशानी है जो अधीन हैं उनकी सीने में बैठ जा उजाले , अंधेर नगरी के कोने में बैठ जा छीन मुफ़लिसी सबकी उनके बाजू में बैठ जा..। © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

लम्हा-लम्हा ये किस्सा भी बिखर जाएगा बिछड़कर मुझसे ये बता तू किधर जाएगा नशीली रात की ठिठोली से हो जुदा ग़मों की कोठरी होगी तू जिधर जाएगा ये नए दोस्त का चस्का अभी नया-नया है पुराना होते ही ये ख़ुमार भी उतर जाएगा रोज-रोज दर बदलना ठीक नही होता देखना किसी रोज तेरा भी दिल भर जाएगा बिछड़ना तुमसे आसां नही है जबकि पता है मेरे कहने पर तू ठहर जाएगा है मालूम मुझे रिश्तों के कड़वाहट की सरसता यकीं कर मेरा ये खुद ब खुद सुधर जाएगा..। © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

रूपहले पर्दे पर नए किरदार दिखते हैं कई साथी तो कई गद्दार दिखते हैं जहाँ में हैं अज़ीम तो रक़ीब भी हैं इधर वहसी तो उधर खुद्दार दिखते हैं जिनके शख़्सियत में ज़मीर शामिल ही नही सियासत में वो ही सरदार दिखते हैं घर की साख पर लगे बंटा तो बंधती है घिघ्घी चुनावों में वो भी जोरदार दिखते हैं गरीब आदमी हमेशा गलत नही होता मख़मूर वो भूख ही है जिससे कसूरवार दिखते हैं कौन चाहता है घर से दूर दूसरों की चाकरी औंधी आँखों मे देखो घर-बार दिखते हैं सब कुछ है शहर में बस इंशा नही रहे गाँवों में देखोगे हर बार दिखते हैं रूपहले पर्दे पर... © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

दिल दुखाने का एक ये बहाना हुआ छोड़ो वैसे भी ये रिश्ता पुराना हुआ मिलके मुझसे,उसे क्या लगा,क्या पता उसको देखा तो मैं तो दीवाना हुआ चाँद टूटे न टूटे खबर न हुई पा के संगत हाँ मौसम सुहाना हुआ रुख़्सतें उसकी सीने में चुभती हैं यूँ चंद लम्हों में खुद को गंवाना हुआ कुछ किस्से सिमट कर दफन हो गए जलते दीपक को जैसे बुझाना हुआ..। © Ankesh Verma

गजल...🍁

एक तुम ही तो थे मेरे शामो-सहर तुम गए तो झुकी है लजा कर नजर संग तुम्हारे ये उपवन था खिलता रहा बिन तुम्हारे यहाँ जल गए हैं शजर तुम जो आये तो बहने हवाएँ लगी संग तुम्हारे थी सारी फजाएँ जगी तेरी चौखट रही मेरी मंजिल सदा  बिन तुम्हारे स्वप्न के हुए दर बदर एक तुम ही तो थे मेरे शामो सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर तुमसे रहती थी गालियां खुशी से भरी तुमको पाने को उठती नजर सरसरी बिन तुम्हारे रहा पीर नयनों में भी झुक गए ये जो आये तुम्हारी खबर एक तुम ही तो थे मेरे शामो-सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर तुम मिले तो लगा चाँद ही आ गया चाँदनी सारी मुझको वो पहना गया तुमसे बिछड़े तो काली घटाएं सजी तुम गए तो बहे हैं शहर के शहर  एक तुम ही तो थे मेरे शामो सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर..। © अंकेश वर्मा