सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

गज़ल..🍁


रूपहले पर्दे पर नए किरदार दिखते हैं
कई साथी तो कई गद्दार दिखते हैं

जहाँ में हैं अज़ीम तो रक़ीब भी हैं
इधर वहसी तो उधर खुद्दार दिखते हैं

जिनके शख़्सियत में ज़मीर शामिल ही नही
सियासत में वो ही सरदार दिखते हैं

घर की साख पर लगे बंटा तो बंधती है घिघ्घी
चुनावों में वो भी जोरदार दिखते हैं

गरीब आदमी हमेशा गलत नही होता मख़मूर
वो भूख ही है जिससे कसूरवार दिखते हैं

कौन चाहता है घर से दूर दूसरों की चाकरी
औंधी आँखों मे देखो घर-बार दिखते हैं

सब कुछ है शहर में बस इंशा नही रहे
गाँवों में देखोगे हर बार दिखते हैं
रूपहले पर्दे पर...

© Ankesh Verma

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA