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गज़ल..🍁


इनके नहीं जा उनके पहलू में बैठ जा
ये उजाले जा टूटी सी झोपड़ी में बैठ जा

जहाँ गमों की तेज आंधी ने उजड़े हैं आसियाने
ले खुशी के गुबार जा वहीं पर बैठ जा

वो भूखे कटोरे लिए बच्चे अब ऊंघ रहे हैं
जा उनकी आंखों में आस बन बैठ जा

और कर रोशन उन स्याह काली गलियों को
उठा के सर पे सूरज जा गली में बैठ जा

देख वो कमजोर रिक्शा अब रुक रहा है
तोड़ मजबूरी की जंजीर वहीं पैरों में बैठ जा

भूखा दुखी किसान है कैद में सरपरस्ती के
ले रख दस्तार उनके सर और क़दमों में बैठ जा

मिन्नत भी अब स्वाधीनता की निशानी है
जो अधीन हैं उनकी सीने में बैठ जा

उजाले , अंधेर नगरी के कोने में बैठ जा
छीन मुफ़लिसी सबकी उनके बाजू में बैठ जा..।

© Ankesh Verma

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA