तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में
मैं अनहोनी को होनी मानता था
तुम्हारा होना सावन का आभासी था
मैं तुमसे मिलकर,
अपना सर्वस्व खोना चाहता था
ठीक उसी भांति,
जैसे ओस की बूंद सूखकर
खो देती है अपना स्वरूप
पुनः सृष्टि के निर्माण को ।
© ANKESH VERMA
प्रेम, समाज और कल्पना का समागम..