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जामुन का पेड़..🍁

रात को बड़े जोर का अंधड़ चला। सेक्रेटेरिएट के लॉन में जामुन का एक पेड़ गिर पडा। सुबह जब माली ने देखा तो उसे मालूम हुआ कि पेड़ के नीचे एक आदमी दबा पड़ा है। माली दौड़ा दौड़ा चपरासी के पास गया, चपरासी दौड़ा दौड़ा क्‍लर्क के पास गया, क्‍लर्क दौड़ा दौड़ा सुपरिन्‍टेंडेंट के पास गया। सुपरिन्‍टेंडेंट दौड़ा दौड़ा बाहर लॉन में आया। मिनटों में ही गिरे हुए पेड़ के नीचे दबे आदमी के इर्द गिर्द मजमा इकट्ठा हो गया। ‘’बेचारा जामुन का पेड़ कितना फलदार था।‘’ एक क्‍लर्क बोला। ‘’इसकी जामुन कितनी रसीली होती थी।‘’ दूसरा क्‍लर्क बोला। ‘’मैं फलों के मौसम में झोली भरके ले जाता था। मेरे बच्‍चे इसकी जामुनें कितनी खुशी से खाते थे।‘’ तीसरे क्‍लर्क का यह कहते हुए गला भर आया। ‘’मगर यह आदमी?’’ माली ने पेड़ के नीचे दबे आदमी की तरफ इशारा किया। ‘’हां, यह आदमी’’ सुपरिन्‍टेंडेंट सोच में पड़ गया। ‘’पता नहीं जिंदा है कि मर गया।‘’ एक चपरासी ने पूछा। ‘’मर गया होगा। इतना भारी तना जिसकी पीठ पर गिरे, वह बच कैसे सकता है?’’ दूसरा चपरासी बोला। ‘’नहीं मैं जिंदा हूं।‘’ दबे हुए आदमी ने बमुश्किल कराहते हुए कहा। ‘’

गज़ल...🍁

ये मैं कैसे व्यूह में उतर गया वक्त ने मारा या मैं सुधर गया तेरी मोहलत दरियादिली थी तेरी रुसवाई से मैं बिखर गया मेरे दोस्त ने पूछा था तेरे इश्क़ को मैं टूट गया था इसलिए मुकर गया तुझसे मुलाकातें कभी रास न आई सो न तेरे पास ठहरा न घर गया जहाँ से परिंदे तेरी खबर लाते थे मैं वक्त का मारा इधर गया उधर गया तेरी सांसों की दरीचे की खोज में रहा तेरे साथ को मचला मैं जिधर गया तुझे न देखा तो पीर आंखों में उतर आई तुझे सोचा तो गला भर गया..। © अंकेश कुमार वर्मा

वक्त तुम्हारा..🍁

अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। अंधियारे में सड़क किनारे हाथ पकड़ के चलते जाना मीठी तीखी बातों के संग किस्से भी भरमार सुनाना मिल-मिल कर जज्बात हमारा खुद ही खुद में घुल जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। रात गए तक बातें करना दिल को बड़ा हंसाता है छोटी से छोटी गलती पर भर कर आंख दिखता है रिश्तों के उलझे धागों में मनमर्जी से बिंध जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। उसकी गलती पर हंसता दिल खुद पर बस खिसियाता है सावन हो या जेठ दुपहरी बरखा में खूब नचाता है चाँद सरीख़ी बातें करता पलकों में खो जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता है जब सूनेपन का कोरा चादर ओढ़ के सूरज सो जाता है..। बस्ती, गलियां और घरों में नई उमंगे भर जाती है तार तार हो मन की पीड़ा खुशियों के सम्मुख आती है घनी रात का जुगनू बन कर पथ भी औचक बन जाता है अनजाने में अनचाहे से साथ किसी का मिलता

वीर शिखंडी के घेरे में...🍁

वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखे हैं..। काल अमर कर निज कर्मों से व्याध-गान को अपनाने को खुले केश सी बिंधी जटायें वचनों-वचनों मर जाने को सत्ता की भूखों में तपती लाखों बृहलाएँ देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखे हैं..। हाथ कटारें तीखी लेकर सूर्य-तपिश को कर शर्मिंदा नरमुंडों की सजी थाल से प्रकट हो रहे मुर्दा-जिंदा सिंहनाद से गर्जन करते शौर्य के मंजर देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखें हैं..। राह सजीली पत्थर बनते वक्त-वक्त शर्मिंदा करते जीवन के विकराल समर में पतित आश की जुगनू बनते स्याह सी मालिन तलवारों संग धर्मों के रक्षक देखे हैं वीर शिखंडी के घेरे में सजी चौखटों से उठते कुछ निष्ठुर पौरुष देखें हैं....। © Ankesh Verm a

गज़ल..🍁

इनके नहीं जा उनके पहलू में बैठ जा ये उजाले जा टूटी सी झोपड़ी में बैठ जा जहाँ गमों की तेज आंधी ने उजड़े हैं आसियाने ले खुशी के गुबार जा वहीं पर बैठ जा वो भूखे कटोरे लिए बच्चे अब ऊंघ रहे हैं जा उनकी आंखों में आस बन बैठ जा और कर रोशन उन स्याह काली गलियों को उठा के सर पे सूरज जा गली में बैठ जा देख वो कमजोर रिक्शा अब रुक रहा है तोड़ मजबूरी की जंजीर वहीं पैरों में बैठ जा भूखा दुखी किसान है कैद में सरपरस्ती के ले रख दस्तार उनके सर और क़दमों में बैठ जा मिन्नत भी अब स्वाधीनता की निशानी है जो अधीन हैं उनकी सीने में बैठ जा उजाले , अंधेर नगरी के कोने में बैठ जा छीन मुफ़लिसी सबकी उनके बाजू में बैठ जा..। © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

लम्हा-लम्हा ये किस्सा भी बिखर जाएगा बिछड़कर मुझसे ये बता तू किधर जाएगा नशीली रात की ठिठोली से हो जुदा ग़मों की कोठरी होगी तू जिधर जाएगा ये नए दोस्त का चस्का अभी नया-नया है पुराना होते ही ये ख़ुमार भी उतर जाएगा रोज-रोज दर बदलना ठीक नही होता देखना किसी रोज तेरा भी दिल भर जाएगा बिछड़ना तुमसे आसां नही है जबकि पता है मेरे कहने पर तू ठहर जाएगा है मालूम मुझे रिश्तों के कड़वाहट की सरसता यकीं कर मेरा ये खुद ब खुद सुधर जाएगा..। © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

रूपहले पर्दे पर नए किरदार दिखते हैं कई साथी तो कई गद्दार दिखते हैं जहाँ में हैं अज़ीम तो रक़ीब भी हैं इधर वहसी तो उधर खुद्दार दिखते हैं जिनके शख़्सियत में ज़मीर शामिल ही नही सियासत में वो ही सरदार दिखते हैं घर की साख पर लगे बंटा तो बंधती है घिघ्घी चुनावों में वो भी जोरदार दिखते हैं गरीब आदमी हमेशा गलत नही होता मख़मूर वो भूख ही है जिससे कसूरवार दिखते हैं कौन चाहता है घर से दूर दूसरों की चाकरी औंधी आँखों मे देखो घर-बार दिखते हैं सब कुछ है शहर में बस इंशा नही रहे गाँवों में देखोगे हर बार दिखते हैं रूपहले पर्दे पर... © Ankesh Verma

गज़ल..🍁

दिल दुखाने का एक ये बहाना हुआ छोड़ो वैसे भी ये रिश्ता पुराना हुआ मिलके मुझसे,उसे क्या लगा,क्या पता उसको देखा तो मैं तो दीवाना हुआ चाँद टूटे न टूटे खबर न हुई पा के संगत हाँ मौसम सुहाना हुआ रुख़्सतें उसकी सीने में चुभती हैं यूँ चंद लम्हों में खुद को गंवाना हुआ कुछ किस्से सिमट कर दफन हो गए जलते दीपक को जैसे बुझाना हुआ..। © Ankesh Verma

गजल...🍁

एक तुम ही तो थे मेरे शामो-सहर तुम गए तो झुकी है लजा कर नजर संग तुम्हारे ये उपवन था खिलता रहा बिन तुम्हारे यहाँ जल गए हैं शजर तुम जो आये तो बहने हवाएँ लगी संग तुम्हारे थी सारी फजाएँ जगी तेरी चौखट रही मेरी मंजिल सदा  बिन तुम्हारे स्वप्न के हुए दर बदर एक तुम ही तो थे मेरे शामो सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर तुमसे रहती थी गालियां खुशी से भरी तुमको पाने को उठती नजर सरसरी बिन तुम्हारे रहा पीर नयनों में भी झुक गए ये जो आये तुम्हारी खबर एक तुम ही तो थे मेरे शामो-सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर तुम मिले तो लगा चाँद ही आ गया चाँदनी सारी मुझको वो पहना गया तुमसे बिछड़े तो काली घटाएं सजी तुम गए तो बहे हैं शहर के शहर  एक तुम ही तो थे मेरे शामो सहर तुम गए तो झुकी है लजा के नजर..। © अंकेश वर्मा

मैं से मानवता तक..🍁

मेरा मन अन्तःगामी है दुःख क्यों मेरा अनुगामी है  बीती यादें भरसक आती संग अपने अंदेशा लाती मैं बुद्ध बना अड़ जाऊँगा बन ठूंठ वहीं गड़ जाऊँगा हैं रातें छिछली सांझ सजर मैं देखूं किंचित भोर निर्झर  सपनों को जो संभाल सकूँ सबके दुख को यदि बाँट सकूँ दे संबल हर वंचित-जन को मैं स्वयं सिद्ध हो जाऊँगा गर ये सब कुछ कर पाया तो मानव हरगिज कहलाऊंगा...।

मधुसूदन...🍁

हे त्रिभुवन प्यारे जग स्वामी हो गए हो कैसे अभिमानी दे दर्शन अपने शीतल छवि का कष्ट हरो सब निर्बल जन का हम भी तुम्हरे चरण पखारें जन-धन सब तुम पर न्यौछारें तुम्हरे दर्शन नयनन सुख दें विरह तुम्हारी सम्बल तोड़ें आये बसो मन ही मन राजा देहु सबय जन प्रेम को धागा रौद्र रूप ले कष्ट निवारो कलयुग के जन-जन को तारो अंधियारों में दीप जलाओ देहु सबय सुख मन हर्षाओ आये बसो घर घर मधुसूदन देखि सरस् होइ जीवन-जीवन.।

सत्ता और हम...🍁

तुम्हारे बाग आज गुलज़ार हैं तुमने सींचे हैं अपने बगीचे हम जैसों के रक्त की बूंदों से तुम्हारी कुर्सी की खातिर बहाये हैं हमने पाले में पसीने तुम्हारी जीत को हमने लाठियां खाई हैं जमीदारों की सत्ता के गलियारों में  तुम्हारी हनक के लिए  हमने झेलें हैं पुलिस के डंडे और पानी की बौछार, इन सबके बावजूद भी  आज हम अपने  अस्तित्व की खोज में हैं हमें भटकना पड़ता है दर-दर ठोकरें खाते हुए अपने परिवार की खातिर  दो जून की रोटी को कभी कभी लगता है तुम्हारा न होना हमारे होने की पहली शर्त है..।

एकाकीपन...🍁

रोड़े बन जाते हैं  मेरे अपने ही हालात रोकते हैं मेरा रास्ता मेरी कस्ती मझधार में है केवल मुझ तक हैं मेरी सांसे  मेरी आहट भी बस मुझे है मेरा मान,मेरा अभिमान  सब मुझमे दफन हैं मेरे स्वप्न एक-एक कर  सिमट गए हैं मेरे ही भीतर इनका अस्तित्व तो है परन्तु असम्भव प्रतीत होता है इनका चरितार्थ होना तौलता हूँ मैं समाज को अपने तर्क की तराजू पर उसकी चीर फाड़ करता हूँ किसी डॉक्टर की भांति और अपने आंसू को बनाता हूँ स्याही कुछ लिखने को ये जरिया बनता जा रहा है मेरी भड़ास निकालने का मेरा खुद का लिखा भी  अब मुझे थकाता है किसी अपने का साथ भी  नही दे पा रहा मुझे मेरे खालीपन से राहत किसी खाली बोतल में कैद आत्मा की तरह मैं सब कुछ महसूस करके भी केवल और केवल मौन हूँ..।

स्त्री विमर्श...🍁

रीति-रिवाज व परंपराएं सदैव धनात्मक नही हो सकती , कहीं न कहीं पर ये मनुष्य के लिए विनाशकारी सिद्ध होती हैं और जब बात स्त्रियों की हो तो समाज रीति-रिवाज , परम्पराओं व नैतिक मूल्यों के नाम पर उनके पैरों पर अपनी कसावट और भी मजबूत कर देता है..। स्वतंत्रता के नजरिये से स्त्री कभी भी अपने आप को शक्तिशाली नही महसूस कर पाई , यही कारण है कि स्त्री को " अंतिम उपनिवेश " की संज्ञा दी जाती है...। वहीं दूसरी ओर अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ के स्त्रियों का मन स्वतंत्रता की आंच से भी भय खाता है..। उनको दी गई स्वतंत्रता के साथ एक अदृश्य भय हमेशा उनके साथ चलता है और अंततः उसका उपभोग भी एक आज्ञापालन ही होता है...। जहाँ स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है वहाँ पर भी स्त्री-पुरुष संबंध काफी उलझे हुए होते हैं , जैसा कि पश्चिमी देशों में देखने को भी मिलता है...। दरअसल स्वतंत्र पुरूष यह तय नही कर पा रहा है कि स्वतंत्र स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाए , वहीं दूसरी ओर अनेको स्त्रियां भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करें..इसलिए वो कभी -कभी अपने लिए

गज़ल..🍁

उजाड़ गमजदा हयात* में अरमान ढूंढिये अन्ज़* पर मुम्ताज़ सा कोई निगहबान ढूंढिये गर हिज्र ही है आपकी अज़ाब* जान लो अग्यार* में भी अपना मेहमान ढूंढिये ला रही हों कराह जो जवानी की सलवटें  नौजवान सा कोई पासबान* ढूंढिये है यही लोगों का बहिस्त* आज कल एक फ़रामोश कोई मेजबान ढूंढिये तब प्यालों में तमाम उम्र काट दी तुमने  अब ताराज* मापने को मीज़ान* ढूंढिये.। ये गज़लकारी भी अब एक रोज़गार है वाह वाह करने को मेहरबान ढूंढिये..।। हयात*- जिंदगी /  अन्ज़*- धरती हिज्र*- विरह /  अज़ाब*- पीड़ा अग्यार*- अजनबी /  पासबान*- रक्षक बहिस्त*- जन्नत /  ताराज*- बरबादी मीज़ान*- तराजू                            - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

तुमसे मिलना और बिछड़ना अल्लाह ख़ैर कैसे हो दिन रात संवरना.? अल्लाह ख़ैर.। तुमसे भी मिल बस खुद से ही बातें की हैं तुम संग है हालात सुधारना.? अल्लाह ख़ैर.। तनी हुई तलवार हमारी गर्दन पर है अब भी है हालात बिगड़ना.? अल्लाह ख़ैर.। इक-इक कर खो गए यहाँ मनसूब हमारे खामोशी संग राह विचरना अल्लाह ख़ैर.। तुमसे बिछड़े हुआ है अरसा मौला जाने पर अब भी है रात जगन्ना अल्लाह ख़ैर..।। मनसूब*- संबंधित जगन्ना*- जागना                                   - अंकेश वर्मा

अंतर..🍁

अमीर लोग नही करते भगवान की चिंता न ही उन्हें फिक्र है कयामत के दिनों की वे भगवान से न्याय की उम्मीद भी नही करते उन्हें बस फिक्र सताती है अपने पैसों की अपने ठिगने कद और ऊंची नाक की और थोड़ी सी परिवार की भी पर गरीब के पास कुछ नही होता वो पड़ा रहता है परिवार की चिंता में दुखी होता है समाज के दुखों से उसे भिखारी रुलाते हैं वो बेहतर समझता है बीमारी से इतर मर जाना रोकती हैं ये चीजें उसे अमीर बनने से और भगवान भी उसे बहुत डराते हैं..।                                 - अंकेश वर्मा

प्रेम गीत गाएंगे..🍁

हो की बरखा जानलेवा या पवन हो मौत लाई तेज लहर पर बैठ संग-संग हो अभागन साथ आई हम सभी ही एक रंग के  बन ध्वजा लहराएंगे हम प्रेम गीत गाएंगे हों की बिगड़े बोल सबके या सियासत बोझ डाले तार दे सब दुखी जनों को या दिखाए स्वप्न काले पीड़ितों के हम बसंत बन धुरी इतराएंगे हम प्रेम गीत गाएंगे

घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

नए नजरिए..🍁

माँ खेत मे धान रोप रही हैं साथ में और भी कई महिलाएं हैं सब मिल कोई लोकगीत गा रही हैं पिताजी कभी इधर की मिट्टी उधर तो कभी उधर की इधर कर रहे हैं कभी मेढ़ को सही करते  तो कभी जुताई में न उखड़ी घास को  जोर लगा कर उखाड़ते कभी कांधे पर बोरा टांग खेत में यूरिया को छीटते भइया साईकल से बियाड़ लाते और खेतों में थोड़ी थोड़ी दूरी पर फेंकते जाते इन सब से दूर खड़ा मैं बस इस मनोरम दृश्य को देखे जा रहा था काम कुछ भी नही था बस घुघरी खाते हुए लोगों को  देखना भर ही मेरे लिए काम था मेरे मस्तिष्क पटल पर मेरे बचपन के दिन उमड़ घुमड़ कर उभर रहे थे जब मैं भी पिताजी के साथ  मिट्टी में सराबोर रहता था अचानक मुझे आभास हुआ दुनिया को अपने अलग नजरिए से  देखने की कोशिश में मैं कब अपनी दुनिया से ही दूर हो गया पता ही नही चला..।                               - अंकेश वर्मा

मनुष्यता..🍁

मनुष्य का मरना नही है उतना भयावह जितना हौसलों का मरना विश्व पटल पर  मैं तौलता हूँ राजनेताओं को उनकी इस काबिलियत से कि किसने दी है वंचितों के हौसलों को उड़ान और किसने दफ्न किया है उनके भ्रूण रूपी स्वप्न को किसने बनाई हैं संभावनायें और कौन है मानवता को निगलने की फिराक में ये वो पैमाना है जो मुझे काबिल बनाता है लोगों को और राजनीति को  तुलनात्मक नजरिये से परखने में इन प्रक्रियाओं के विश्लेषण में मुझे सिद्धान्तों की आवश्यकता नही होती और मैं मनुष्यता को धारण करता हूँ..।                                           - अंकेश वर्मा

उधारू कलमकार🍁

जी हाँ, मैं एक उधारू कलमकार हूँ जैसे उधारू पैसे से मिलता है सुख पर शांति नही खरीद लो मनमाफिक चीजें पर उनपर संपूर्णता का दावा उचित नही कुछ ऐसा ही है मेरे जीवन में मैंने वो सब लिखा  जो मुझे लिखना चाहिए समाज की पीड़ा देश की क्रांति संग देह की क्रांति विश्व का प्रेम जंजीर में जकड़ी स्त्री लिखी लिखा टूटते और जुड़ते दिलो को अशिक्षित गाँवों को माँ के ममत्व को पिता के झुके कंधे ,  भूखे और लाचार मजदूर को और राजनीति के कालिख को भी परन्तु केवल लिखा किया कुछ नही न समाज को बदला न क्रांति का बना भागीदार न सिखाया प्रेम विश्व को न लड़ा समानता और स्वतंत्रता खातिर ये कर पाता तो संपूर्णता को प्राप्त करता गर कर पाया तो ये तमगा मिलेगा किन्तु अब तक जीवन की मैंने अनगिनत अधूरी कहानियां लिखी कई बिखरी कविताएं लिखी जो अपूर्णता का द्योतक है इसलिए संपूर्णता मिलने तक   मैं उधारू कलमकार हूँ..।                 - अंकेश वर्मा

बचपन तुम बेवफ़ा थे क्या..?

तुम जब से हमें छोड़ कर गए हो... वो दिन हमे हरपल याद आते हैं जो हमने संग संग बिताए थे..।। कुछ याद है तुम्हें..?? हम बारिश में छत से गिरते गंदे पानी से नहाते और मिट्टी में सराबोर हो जाते पापा की मार से बचने के लिए चाची के पीछे छिप जाते थे आम बीनने के लिए तो  कोसों दूर हो आते थे इमली के चक्कर में उस धोबी ने कितनी गाली दी थी कुछ भी नही याद है क्या..?? छोटे मेंढकों को सूइयों से  मोटा कर देते थे वो तीरी के पीछे  खेतों के  सैकड़ो चक्कर लगाए हैं वो कंचो की खनखनाहट भी जो मुझे सिक्को से ज्यादा प्यारी थी नदी में नहाने के लिए  भैंस को नहलाने का बहाना था अब भी याद नही आया..?? वो धान के फूस में भैया संग सोना रात रास्ते में डरना,भूत की कहानी बनाना स्कूल न जाकर रास्ते में बेर का पेड़ ढूढना उस मीठे और शांत उपवन में  मेरे संगी होने के बजाय तुम मुझे छोड़ कर क्यों चले गए थे.. बचपन…. तुम बेवफ़ा थे क्या..??                             - अंकेश वर्मा

माँ...💖

रात्रि का भोर  बसन्त-पंचमी का त्योहार रिमझिम बारिश  पीपल की ऊंची डाल पर लटकता झूला झूले पर अट्ठहास करती बालाएं फूल से गुंथे डंडे लिए  शरारती बच्चों की टोली और इन सब को  देख कर भी अनदेखा करते एक पिता द्वार पर चहलकदमी कर रहे थे कुछ उलझे हुए से थे अचानक एक नन्ही किलकारी गूंजी इसी किलकारी में  घर के लोगों ने देखे भिन्न-भिन्न सपने पिता ने देखा - अपने वंश का एक और चिराग जो फलित करेगा उनके सपनों को भाई को दिखा  एक नन्हा सा जादुई खिलौना बहन को दिखी इक और कलाई.. वो माँ ही थी जिसने लिया फैसला  अपनी उम्र को और लंबा करने का अपनी नन्ही जान की खातिर...!                              - अंकेश वर्मा

तरक्की...?

तुम्हारे घर के पिछले दरवाज़ों से आती हुई अंग्रेजी शराब की बोतलें मेरी नज़र में हैं सामने के दरवाजे से चाहे कितनी भी चकाचौंध घुसे वो काफी नही है  मुझे अंधा करने को दिखते हैं मुझे तुम्हारे दालानों में बैठे अफसर जो कर चुके है अपने ज़मीर का सौदा तुम्हारी मुफ्त की शराब के लिए मैं देख सकता हूँ तुम्हारी दालान के नाच-गानों और बदहवास पिछले कमरों में एक मजबूर स्त्री के ठुमकों के बीच गाँव के सैकड़ो लोगों के जीवन के मोलभाव को उनके अधिकारों की  सस्ती कीमतों को  मिट्टी की पगडंडियों पर ईंटों के चमचम से ऊपर  हम देख नही पा रहे हैं अपनी तरक्की को बस एक निवेदन है अपने दालानों को देखने देना हम गाँव वालों को भी ताकि हमें भी आभास हो अपनी बदलती परिस्थितियों का...!                        -अंकेश वर्मा

प्रेम..💖

प्रेम चुनता है  नित नए पत्ते कुछ गिरते है  कुछ देते हैं.. थोड़ी देर सहारा कुछ बलि चढ़ते है पूजा-पाठ के कुछ ठिठोली में

अच्छा हुआ...

तुझे भी तुझ सा मिला  अच्छा हुआ तुझसे बात की और चुप भी रहा अच्छा हुआ मेरी दुखती रिसती रग भी तुझे बद्दुआ न दे पाई फिर भी जो न सोचा वो हुआ अच्छा हुआ सुना है वो कहानियों का  शौकीन नही है तुम्हारे साथ तो है पर तुम्हारे साथ का शौकीन नही है वो सुनकर भी तुम्हे  अनसुना करता है अच्छा हुआ वादा दूर का किया है उसने तुम्हे नही  तुम्हारा जिस्म जिया है तुम रोती हो  तो मनाता भी नही अच्छा हुआ तुझे भी तुझ सा मिला अच्छा हुआ तुझसे बात की और चुप भी रहा अच्छा हुआ...!             -अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

इश्क़ के शहर में ग़मों की तेज धार है जाने क्यों सभी को बस इसी का इंतजार है.। उसके आने की अब कोई खबर भी तो न रही हमें फिर क्यों उसी का इज्तिरार-ए-दीदार है.। मिरे गाँव के हालात अब भी तो नही बदले मिरे गाँव मे अब भी  धोवन पाने की कतार है.। हम खुद-ब-खुद चाहते है उसके पैरों का जूठन ये ज़मीर इस कदर सियासत का इख़्तियार है.। ये जिंदगी जो रही बस कुछ दिन की रही मिरा वो कॉलिज ही मिरी ख़ुशी का इख़्तिसार है.। हम दोस्त भी अब पहले से न रहे ये मख़मूर जाने कितने सवालों से मिरा ये दामन दागदार है.। और मिरे वालिद ने भी तो मिरे लिए रखें होंगे रोज़े एक वो ही तो हैं जो मिरे गमगुस्सार हैं..।।                                            -अंकेश वर्मा

नालायक बच्चा...😢

दिन ढलते ही लौटते हैं पक्षी अपने बसेरों की ओर चहचहाहट करते हुए सारे जन भी  लौटते हैं अपने घरों को खुद को आराम देने तब खुद सूरज भी छिपने लगता है  बादलों की आगोश में  क्योंकि वो भी डरता है अंधेरे से तब मेरे भीतर का  इक नालायक बच्चा खोलता है अपनी आँखें जो कुछ नही कर पाता खुद को असहाय पाता है और बस रोता है समाज पर , राजनीति पर , प्रेम पर और कभी-कभी खुद पर भी इस तरह वो बिता देता है रात्रि का एक पहर फिर वो नालायक बच्चा काटता है शहर के चक्कर आवारों की भांति कुछ नया खोजने को कभी दूसरों के भीतर कभी अपने ही बिस्तर के सिराहने कभी उपन्यास की कहानियों में तो कभी खुद की लिखी पंक्तियों में अंततः थक हार सो जाता है वो इक नई रात्रि के दूसरे पहर के इन्तजार में क्योंकि उसे उजाले हकीकत लगते है जो उसे बहुत डराते हैं..!                         - अंकेश वर्मा

गज़ल..🍁

कोई कितना भी जकड़े मैं बस छूट जाता हूँ मैं रिश्तों के भंवरजाल से बहुत दूर जाता हूँ.। मुझे मिरे गाँव की चीखें रात जगाती हैं मैं प्याले में गज़ल भरता हूँ और डूब जाता हूँ.। निकलना तो चाहूँ मैं मुल्क की सियासत बदलने मगर दौलत के नशे में खुद चूर जाता हूँ.। अजब है मिरा अपनापन जताने का तरीका भी मैं जिसे इश्क़ करता हूँ उसी को भूल जाता हूँ.। ये तिरे-मिरे बीच जो गलतफहमियों की दीवार है उसे तोड़ना तो चाहूँ मगर खुद टूट जाता हूँ.। मिरी बदनसीबी मिरा पीछा नही छोड़ती मख़मूर मैं जिसे पास चाहूँ उसी से दूर जाता हूँ..।                                            - अंकेश वर्मा

हमारे किस्से..🍁

उसके आँखो की गुश्ताखियों की जो मनमानी है मेरा इतिबार करो ये जहां वालों बड़ा शैतानी है.। किसी के इश्क़ में बेतरतीब हो जाऊं ये आसां तो नही मेरे किरदार के माफ़िक मेरा इश्क़ भी गुमानी है.। मेरी कमबख्त आँखें उसके नूर को समेट नही पाती  उसका अक्स भी कुछ-कुछ परियों सा रूहानी है.। उसके माथे को चूमती जुल्फ़ें मुझे मदहोश करती हैं  किसी न किसी रोज़ ये बात उसको बतानी है.। गर वो मेरे सामने रोए तो मुझे रोने से इनकार नही मुझे तो अब सिर्फ उसी से निभानी है.। गर उसे मुझपे एतबार न हो तो कोई आफ़त नही मैं उसे जाने दूँगा कर्ण सा मेरा इश्क़ भी दानी है..।।                                                - अंकेश वर्मा

परंपरा...⚔

तुम्हारी ख़ामोशी  तुम्हें तबाह करेगी तुम जितना दबोगे दबाए जाओगे झुकोगे  तो वो और झुकायेंगे अभी तुममे सामर्थ्य है तुम लड़ सकते हो अपनी गठीली भुजाओं से अपनी मजबूत इक्षाशक्ति से हथियार बना सकते हो खुद को और उनके अन्याय को उखाड़ फेंक सकते हो याद रखना  गर ये नही किया तो आने वाली नस्लें सवाल पूछेंगी तुमसे कि तुमने उनके लिए  वो क्यों नही किया..? जब तुम कर सकते थे..! तब तुम अपने पिता को कोसोगे.. कि उन्होंने तुम्हें बेहतर संसार क्यों नही दिया..?                       -  अंकेश वर्मा

मनमौजी..🍁

वो जो वफ़ा में डूबते हैं किधर जाया करते हैं सुखन-ए-चंद लम्हों सा गुजर जाया करते हैं.। ये इश्क़ भी कुछ-कुछ सियासत सा है मख़मूर जिन्हें कुर्सी मिलती है वो संवर जाया करते हैं.। सियासत में अब भी होती हैं गुंडों की भर्तियां वो अलग बात है दिखावे को सब सुधर जाया करते हैं.। देखो न ये गाँव के लोग अब भी पहले से ही तो हैं डरते भी नही और अपनों की खातिर डर जाया करते हैं.। ये सब छोड़ो तुम सुनो न मुझसे मेरे महबूब के किस्से हम उसे देखते ही गोया मर जाया करते हैं.। जब वो हमसे पूछती है कि क्या तुम्हें हमसे इश्क़ है हम अपनी धुन के पक्के हैं हर बार मुकर जाया करते हैं.। वैसे इस जहां में ये इश्क़ भी हैरतअंगेज ही है कैसे भी मिलते है और कहीं भी बिछड़ जाया करते हैं..।।                                                       - अंकेश वर्मा

सफ़र..🍁

ये मयकदे के रस्ते पर जो बहके कदम नजर आते हैं झाँक कर देख इनमें तू हमी हम नजर आते हैं.। जहां को जकड़ना मुट्ठी में फिर जुगनू सा उछाल देना सिफ़त-ए-हसीन-सफ़र में भी बस ग़म नज़र आते है.। तेरे आने से इन वादियों में रौनक-ए-बहार आई थी तेरे जाने से अब ये रुख़सत-ए-चमन नज़र आते हैं.। भूलने की कोशिश तूने भी की भरपूर मैंने भी की बदनसी फिर भी देख हम तो सनम नजर आते हैं.। इश्क़ का रोग यूँ दिल को न लगा ये मख़मूर इश्क़-ए-बाजी में सब बेदम नजर आते हैं..।।                                              - अंकेश वर्मा

चंद दिन शेष...💖

  हमारी आखिरी मुलाकात के बाद मैंने कुछ गौर किया हम मिलते हैं ढेर सारी बातें करते हैं इस दौरान हमारे बीच झगड़े भी हुए दोनों रूठे और उठ कर चल दिए इस मिलने,रूठने और चल देने में हमारे बीच बातों का सिलसिला कमजोर हुआ है जो मेरे लिए बड़ा नुकसान है अब जब अगली बार मिलेंगे एक दूसरे से बोलेंगे नही हम बंद जुबान से  ढेर सारी बातें करेंगे एक दूजे की खुली आँखों मे देखते हुए इस तरह मैं अपने नुकसान की भरपाई कर लूंगा..!                                   - अंकेश वर्मा

मोहन आओ न....

अब प्रेम आंशिक हो चला है हर कोई अमादा है तुम्हारी नकल करने में सबने तुम्हारी बात मानी खूब प्यार बांटा इतना कि खुद बंट गए और प्रेम इतना है कि रिश्ते रिसने लगे हैं तुम कविता और कहानी में सिमटते जा रहे हो अब तो ग्रन्थ बन गए हो लोगों को अच्छा लगता है इन ग्रन्थों को पढ़ना लेकिन वे इसे किताबी मानते हैं इसके बावजूद भी कुछ हैं सरफिरे से पागल लेकिन वो प्रासंगिक नही हैं कब तक गर्भगृह की शोभा बढ़ाओगे मोहन आओ न फिर से इन्हें प्रासंगिक बनाने प्रेम से आशिक़ी बने प्रेम की घर वापसी के लिए...!                     -अंकेश वर्मा

इप्रेक्💖

लालकिले के प्रांगण में विचरते हुए वो मुझे इतिहास के कुछ रोचक किस्से सुना रही थी...  जिनमें कुछ सच तो कुछ झूठ थे... सब कुछ जानने के बावजूद भी मैं एक अच्छे साथी के दायित्व का निर्वहन करते हुए उसकी झूठी बातों को नजरअंदाज कर रहा था... पर एक बात थी जो मुझे बार-बार विचलित कर रही थी... दरअसल पूरी यात्रा की दौरान उसकी रेशमी जुल्फ़े उसके माथे पर आ जाती जिसे वो हर बार झटक देती... इसी बीच उसने अकबर के मयूर सिंहासन से जुड़े किस्से सुनने आरम्भ किये जिसे मैं सुनते हुए भी अनसुना कर रहा था.... असल में मयूर सिंहासन का नाम सुनते ही मेरे जेहन में शाहजहां की एक धुंधली तस्वीर उभरी.... और मैं आवारों की भांति उसकी जुल्फों में खोया निकल पड़ा लालकिला के रास्ते इस मुमताज के लिए एक नए ताजमहल के निर्माण को.....                                 -अंकेश वर्मा

इप्रेक्💖

पार्क में टहलते टहलते अचानक उसे फोटोग्राफी का भूत सवार हो जाता... पत्तियों को पकड़कर यूँ फ़ोटो खींचती मानो पत्ती न हो किसी सुपरस्टार का चेहरा हो... मैं उसकी इन क्रियाकलापों से दूर खो जाता उसकी पत्तियों से  हम दोनों के लिए पंचवटी में एक कुटिया बनाने... अचानक आवाज आती कैसा है ये... मैं भी अपनी यादों के सागर में हिलोरे मारता जवाब  देता संसार में इससे सुंदर कुछ हो ही नही सकता....।। (वह मान लेती कि मैंने फ़ोटो की प्रशंसा की है)                                   -अंकेश वर्मा   

अच्छा सुनो....😑

कभी खुद को वक्त के तराजू में रखना फिर गौर करना कहीं तुम भी वही तो नही जिनके तौर-ए-जिंदगी को तुम कोसते हो तुम्हारे मुस्कान पर हजारों रुसवाईयाँ शर्माती है पर खुद को इनकी आड़ में कब छिपाओगे अपने झूठे जज़्बात और उलझे रिश्तों को खुद से दरकिनार करना और फिर सोचना कहीं उसे सब पता तो नही है बगैर तुम्हारे कुछ भी बताए नवीनता हमेशा उल्लास लाती है मगर पुराने घर के प्यार को झुठलाया नही जाता इसलिए निपट अकेले हो जिस क्षण तब खुद के भीतर झाँकना और फिर महसूस करना कहीं दुनिया को खुद में समेटने के चक्कर में तुम अकेले तो नही होते जा रहे  रिश्तों का बनावटीपन ज़ेहन में रखना ये छिपकर भी आँखो से ओझल नही होता ये अलग बात है कि किसी को उसे देखना नही होता अपने ख़्यालों के पन्ने पलटना और फिर देखना वो जो सिर्फ तुम्हारे थे  जिन पर सिर्फ तुम्हारा अधिकार था एक-एक कर तुमसे दूर क्यों चले गए..!                           - अंकेश वर्मा

रेहाना..🍁

दोपहर का वक्त और धूप बादलों के साथ लुकाछिपी खेल रही थी..! दो दिन से बारिश के आसार थे जो अब तक आसार ही बने हुए थे हकीकत से बहुत दूर । बाहर नीम पर कौवे की काँव काँव दोपहर को और भी कर्कश बना रही थी । सरकारी नल के नीचे बैठी रेहाना बर्तन धुलने के साथ चेहरे पर आती जुल्फों को एक ताल से हटाती जा रही थी । कालिख लगे हाथों से बार बार बालों को हटाने के क्रम में हर बार उसके गोरे मुखड़े पर कालिख लग जाती जो उसके चेहरे पर इस समय नजरबट्टू का काम कर रही थी । रेहाना के परिवार में कुल आठ जन थे , उसके अब्बू-अम्मी ,  तीन भाई और उसे लेकर तीन बहन । परिवार की स्थिति नाजुक ही कही जाएगी , पिता दो बेटों के साथ लुधियाना में कपड़े सिलते थे , बड़ा बेटा मेराज गांव का चौकीदार था जिसे हजार रुपये मिलते थे और साथ ही साथ वह गांव के बाहुबली सोमेश सिंह की गाड़ी चलाता था..। घर का खर्चा बस किसी तरह से चल रहा था । बर्तन धोती रेहाना को अचानक स्मरण हुआ कि कल झाड़ू लगते समय चूल्हा टूट गया था जिसे सही करने के लिए तालाब से चिकनी माटी भी लाना है । माँ होती तो शायद आज उसका काम बंट जाता लेकिन वो परिवार के अन्य लोगों के साथ

नजरिया...🍁

नीति -अनीति के द्वंद्व में  मन शंकित हो जाता है भला जुए के खेल में भी  कौन नीति को रखता है शकुनि ने टेढ़ी चल चली तो युधिष्ठिर को हट जाना था छोड़ जुए का खेल उन्हें  उस संगत से उठ जाना था यदि गलत थे कौरव  तो कौन युधिष्ठिर   उचित ही करते जाते थे राज्य मोह में भाई-पत्नी  तक को रखते जाते थे गर नीति स्वरूप सब भाई पर  युधिष्ठिर का हक बनता था तो नीति दृष्टि से भाई की  रक्षा का दायित्व भी पड़ता था सत्य और नीति के पथप्रदर्शक  भाई-पत्नी के जंगी थे यदि कौरव अनीति के साधक थे तो युधिष्ठिर भी उनके संगी थे..!                   - अंकेश वर्मा

सफ़र जारी है....💖

अनायास ही घटती है कई घटनाएं और बनती है जीवन की खास स्मृतियां पर वो बनती हैं हमारा इतिहास और बदलती है अंतिम पड़ाव के उलझते चमकीले दिनों के भूगोल को इसलिए मैंने अपने जीवन के  कुछ पन्ने कोरे छोड़े हैं कुछ सपने मैंने उनके लिए बुने हैं सोचता हूँ कि  रंगीन कागज के  छोटे टुकड़ों में बांटकर उनको अपने खाली पन्नों में भर दूँगा..।।                   - अंकेश वर्मा

रणनीति...🍁

वो फिर आएंगे तुम्हे बरगलाने राष्ट्रवादी बन सुनहरे सपने दिखाने धर्म की जंजीरों में जकड़ने तुम्हें साठ साल का गुलाम बताने वो आएंगे तुम्हें अपने सिद्धांतों से खरीदने लेकिन तुम अड़े रहना चंद पैसों के लिए बिकना नहीं झुकना नही उनके बाहुबल के सामने मत देना उनका साथ  देना उनका जो जुड़े हुए है तुमसे जो रहेंगे तुम्हारे बीच  तुम्हारे अपने बन कुछ और भी आएंगे  साम्प्रदायिकता का डर दिखाने दिखाएंगे दूसरों के तानाशाही को खुद को मासूम बताएंगे खुद के काम न दिखाकर दिखाएंगे दूसरों की गलतियों को पर तुम अड़े रहना न बनना फिर से गुलाम  न जकड़ना खुद को  सामंतवाद की बेड़ियों में कुछ ऐसे भी आएंगे जो जातियों के नाम पर जोड़ेंगे दिखाएंगे तुम्हारी गरीबी और भुखमरी समाज मे तुम्हारी हैसियत बोलेंगे तुम्हारे अधिकारों के लिए बताएंगे तुमको और खुद को नीच दिखाएंगे अधिकारों के सपने  फिर खुद ही निगल लेंगे उन्हें तुम इनके चक्करों में न पड़ना धर्म से इतर , जाति से इतर विचारधारा और चिन्हों को भूल किसी पूर्वाग्रह से प्रभावित हुए बिना तुम देखना केवल  अपने सुनहरे भविष्य को देखना उनके अतीत को तुलना करना

नारी केवल श्रद्धा नही है...🍁

नारी खोजती है जीवन उजाड़ वन रूपी घरों में  नारी दिखलाती है पथ अपने बच्चों को नारी दौड़ती भी है समय और प्रतियोगिता के दौड़ में नारी बस नारी नही है सृजन है एक नए संसार का एक नए भविष्य का वो घर को घर बनाती है वो जलाती है खुद को परिवार की आग को शांत करने को वो माँ है बहन है बेटी और पत्नी भी और हर रूप में पूजनीय है नारी आदि का भी रूप है इसलिए तुम थोड़ा-सा गलत से प्रसाद नारी केवल श्रद्धा नही है नारी अनंत भी है..!                       - अंकेश वर्मा