सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं..💖


प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
जीवन की मधुमास लुटाऊं
मधुर स्मृतियों की छाया में
मैं अपना धन-धान्य लुटाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
दूर गगन में कलरव करता
प्यासी धरती पर आ गिरता
दुःखयारों के दुख को पीकर
सृष्टि का आशीष कमाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
बैठ अकेली दुःखी जब होती
सारी मातायें मुझे पा लेती 
पा अमर लाड़ उन सबका
नित चरणों मे शीश नवाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
बना डाकिया पत्र मैं लाता
विरही के सब दुख हर जाता
प्रिय के कुशल-क्षेम दे-देकर
जीवन की धमनी बन जाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
सारे जन थक जब सो जाते
हम दोनों तब बाहर आते
बैठ रात्रि में छत के ऊपर
मनभावन मैं राग सुनाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
शीतल सरित बहता जल मानिंद
बैठ स्वयं ईश्वर के सानिध्य
पा अमरत्व मानवता की खातिर
मैं अपना नव-धाम रचाऊं
प्रियवर तुमपर प्राण लुटाऊं
जीवन के मधुमास लुटाऊं..!

                  -अंकेश वर्मा

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

स्त्री विमर्श...🍁

रीति-रिवाज व परंपराएं सदैव धनात्मक नही हो सकती , कहीं न कहीं पर ये मनुष्य के लिए विनाशकारी सिद्ध होती हैं और जब बात स्त्रियों की हो तो समाज रीति-रिवाज , परम्पराओं व नैतिक मूल्यों के नाम पर उनके पैरों पर अपनी कसावट और भी मजबूत कर देता है..। स्वतंत्रता के नजरिये से स्त्री कभी भी अपने आप को शक्तिशाली नही महसूस कर पाई , यही कारण है कि स्त्री को " अंतिम उपनिवेश " की संज्ञा दी जाती है...। वहीं दूसरी ओर अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ के स्त्रियों का मन स्वतंत्रता की आंच से भी भय खाता है..। उनको दी गई स्वतंत्रता के साथ एक अदृश्य भय हमेशा उनके साथ चलता है और अंततः उसका उपभोग भी एक आज्ञापालन ही होता है...। जहाँ स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है वहाँ पर भी स्त्री-पुरुष संबंध काफी उलझे हुए होते हैं , जैसा कि पश्चिमी देशों में देखने को भी मिलता है...। दरअसल स्वतंत्र पुरूष यह तय नही कर पा रहा है कि स्वतंत्र स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाए , वहीं दूसरी ओर अनेको स्त्रियां भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करें..इसलिए वो कभी -कभी अपने लिए...

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा