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तरक्की...?

तुम्हारे घर के पिछले दरवाज़ों से
आती हुई अंग्रेजी शराब की बोतलें
मेरी नज़र में हैं
सामने के दरवाजे से
चाहे कितनी भी चकाचौंध घुसे
वो काफी नही है 
मुझे अंधा करने को
दिखते हैं मुझे
तुम्हारे दालानों में बैठे अफसर
जो कर चुके है अपने ज़मीर का सौदा
तुम्हारी मुफ्त की शराब के लिए
मैं देख सकता हूँ
तुम्हारी दालान के नाच-गानों
और बदहवास पिछले कमरों में
एक मजबूर स्त्री के ठुमकों के बीच
गाँव के सैकड़ो लोगों के
जीवन के मोलभाव को
उनके अधिकारों की 
सस्ती कीमतों को 
मिट्टी की पगडंडियों पर
ईंटों के चमचम से ऊपर 
हम देख नही पा रहे हैं
अपनी तरक्की को
बस एक निवेदन है
अपने दालानों को देखने देना
हम गाँव वालों को भी
ताकि हमें भी आभास हो
अपनी बदलती परिस्थितियों का...!

                      -अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA