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सितंबर, 2019 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं से मानवता तक..🍁

मेरा मन अन्तःगामी है दुःख क्यों मेरा अनुगामी है  बीती यादें भरसक आती संग अपने अंदेशा लाती मैं बुद्ध बना अड़ जाऊँगा बन ठूंठ वहीं गड़ जाऊँगा हैं रातें छिछली सांझ सजर मैं देखूं किंचित भोर निर्झर  सपनों को जो संभाल सकूँ सबके दुख को यदि बाँट सकूँ दे संबल हर वंचित-जन को मैं स्वयं सिद्ध हो जाऊँगा गर ये सब कुछ कर पाया तो मानव हरगिज कहलाऊंगा...।

मधुसूदन...🍁

हे त्रिभुवन प्यारे जग स्वामी हो गए हो कैसे अभिमानी दे दर्शन अपने शीतल छवि का कष्ट हरो सब निर्बल जन का हम भी तुम्हरे चरण पखारें जन-धन सब तुम पर न्यौछारें तुम्हरे दर्शन नयनन सुख दें विरह तुम्हारी सम्बल तोड़ें आये बसो मन ही मन राजा देहु सबय जन प्रेम को धागा रौद्र रूप ले कष्ट निवारो कलयुग के जन-जन को तारो अंधियारों में दीप जलाओ देहु सबय सुख मन हर्षाओ आये बसो घर घर मधुसूदन देखि सरस् होइ जीवन-जीवन.।

सत्ता और हम...🍁

तुम्हारे बाग आज गुलज़ार हैं तुमने सींचे हैं अपने बगीचे हम जैसों के रक्त की बूंदों से तुम्हारी कुर्सी की खातिर बहाये हैं हमने पाले में पसीने तुम्हारी जीत को हमने लाठियां खाई हैं जमीदारों की सत्ता के गलियारों में  तुम्हारी हनक के लिए  हमने झेलें हैं पुलिस के डंडे और पानी की बौछार, इन सबके बावजूद भी  आज हम अपने  अस्तित्व की खोज में हैं हमें भटकना पड़ता है दर-दर ठोकरें खाते हुए अपने परिवार की खातिर  दो जून की रोटी को कभी कभी लगता है तुम्हारा न होना हमारे होने की पहली शर्त है..।

एकाकीपन...🍁

रोड़े बन जाते हैं  मेरे अपने ही हालात रोकते हैं मेरा रास्ता मेरी कस्ती मझधार में है केवल मुझ तक हैं मेरी सांसे  मेरी आहट भी बस मुझे है मेरा मान,मेरा अभिमान  सब मुझमे दफन हैं मेरे स्वप्न एक-एक कर  सिमट गए हैं मेरे ही भीतर इनका अस्तित्व तो है परन्तु असम्भव प्रतीत होता है इनका चरितार्थ होना तौलता हूँ मैं समाज को अपने तर्क की तराजू पर उसकी चीर फाड़ करता हूँ किसी डॉक्टर की भांति और अपने आंसू को बनाता हूँ स्याही कुछ लिखने को ये जरिया बनता जा रहा है मेरी भड़ास निकालने का मेरा खुद का लिखा भी  अब मुझे थकाता है किसी अपने का साथ भी  नही दे पा रहा मुझे मेरे खालीपन से राहत किसी खाली बोतल में कैद आत्मा की तरह मैं सब कुछ महसूस करके भी केवल और केवल मौन हूँ..।