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सत्ता और हम...🍁

तुम्हारे बाग आज गुलज़ार हैं
तुमने सींचे हैं अपने बगीचे
हम जैसों के रक्त की बूंदों से
तुम्हारी कुर्सी की खातिर
बहाये हैं हमने पाले में पसीने
तुम्हारी जीत को हमने
लाठियां खाई हैं जमीदारों की
सत्ता के गलियारों में 
तुम्हारी हनक के लिए 
हमने झेलें हैं पुलिस के डंडे
और पानी की बौछार,
इन सबके बावजूद भी
 आज हम अपने 
अस्तित्व की खोज में हैं
हमें भटकना पड़ता है
दर-दर ठोकरें खाते हुए
अपने परिवार की खातिर 
दो जून की रोटी को
कभी कभी लगता है
तुम्हारा न होना
हमारे होने की पहली शर्त है..।

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA