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एकाकीपन...🍁

रोड़े बन जाते हैं 
मेरे अपने ही हालात
रोकते हैं मेरा रास्ता
मेरी कस्ती मझधार में है
केवल मुझ तक हैं मेरी सांसे 
मेरी आहट भी बस मुझे है
मेरा मान,मेरा अभिमान 
सब मुझमे दफन हैं
मेरे स्वप्न एक-एक कर 
सिमट गए हैं मेरे ही भीतर
इनका अस्तित्व तो है
परन्तु असम्भव प्रतीत होता है
इनका चरितार्थ होना
तौलता हूँ मैं समाज को
अपने तर्क की तराजू पर
उसकी चीर फाड़ करता हूँ
किसी डॉक्टर की भांति
और अपने आंसू को
बनाता हूँ स्याही कुछ लिखने को
ये जरिया बनता जा रहा है
मेरी भड़ास निकालने का
मेरा खुद का लिखा भी 
अब मुझे थकाता है
किसी अपने का साथ भी 
नही दे पा रहा मुझे
मेरे खालीपन से राहत
किसी खाली बोतल में
कैद आत्मा की तरह
मैं सब कुछ महसूस करके भी
केवल और केवल मौन हूँ..।

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA