मेरा मन अन्तःगामी है
दुःख क्यों मेरा अनुगामी है
बीती यादें भरसक आती
संग अपने अंदेशा लाती
मैं बुद्ध बना अड़ जाऊँगा
बन ठूंठ वहीं गड़ जाऊँगा
हैं रातें छिछली सांझ सजर
मैं देखूं किंचित भोर निर्झर
सपनों को जो संभाल सकूँ
सबके दुख को यदि बाँट सकूँ
दे संबल हर वंचित-जन को
मैं स्वयं सिद्ध हो जाऊँगा
गर ये सब कुछ कर पाया तो
मानव हरगिज कहलाऊंगा...।
दुःख क्यों मेरा अनुगामी है
बीती यादें भरसक आती
संग अपने अंदेशा लाती
मैं बुद्ध बना अड़ जाऊँगा
बन ठूंठ वहीं गड़ जाऊँगा
हैं रातें छिछली सांझ सजर
मैं देखूं किंचित भोर निर्झर
सपनों को जो संभाल सकूँ
सबके दुख को यदि बाँट सकूँ
दे संबल हर वंचित-जन को
मैं स्वयं सिद्ध हो जाऊँगा
गर ये सब कुछ कर पाया तो
मानव हरगिज कहलाऊंगा...।