रीति-रिवाज व परंपराएं सदैव धनात्मक नही हो सकती , कहीं न कहीं पर ये मनुष्य के लिए विनाशकारी सिद्ध होती हैं और जब बात स्त्रियों की हो तो समाज रीति-रिवाज , परम्पराओं व नैतिक मूल्यों के नाम पर उनके पैरों पर अपनी कसावट और भी मजबूत कर देता है..।
स्वतंत्रता के नजरिये से स्त्री कभी भी अपने आप को शक्तिशाली नही महसूस कर पाई , यही कारण है कि स्त्री को " अंतिम उपनिवेश " की संज्ञा दी जाती है...।
वहीं दूसरी ओर अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ के स्त्रियों का मन स्वतंत्रता की आंच से भी भय खाता है..। उनको दी गई स्वतंत्रता के साथ एक अदृश्य भय हमेशा उनके साथ चलता है और अंततः उसका उपभोग भी एक आज्ञापालन ही होता है...।
जहाँ स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है वहाँ पर भी स्त्री-पुरुष संबंध काफी उलझे हुए होते हैं , जैसा कि पश्चिमी देशों में देखने को भी मिलता है...।
दरअसल स्वतंत्र पुरूष यह तय नही कर पा रहा है कि स्वतंत्र स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाए , वहीं दूसरी ओर अनेको स्त्रियां भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करें..इसलिए वो कभी -कभी अपने लिए ऐसा जीवन चुनती हैं जो एक नए रहस्य-लोक के निर्माण कर देता है..। ज्यादातर स्त्रियों को स्वतंत्रता केवल जकड़न का आभास देती है क्योंकि उन्हें स्वतंत्रता भी जमानत की शर्तों पर ही दी जाती है..।
न जाने क्यों स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्त्री समाज को अपने खिलाफ नजर आती है और इसमें भी मिथक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.. मिथक कितने शक्तिशाली होते हैं और किस तरह हमारी मानसिक बुनावट ही नही हमारे भौतिक रिश्तों को भी प्रभावित करते हैं यह महसूस करते ही दिमाग की नसें सुन्न हो जाती हैं..।
स्त्रियों के विषय मे अक्सर सुनने को मिल जाता है कि इन्हें समझना नामुमकिन है, दरअसल स्त्री के लिए यह रहस्य-लोक भी पुरुषों ने ही बनाया है और स्त्रियां इसकी इतनी आदी हो गई हैं कि उन्हें यह सोचने की फुरसत ही नही है कि उन्हें क्या चाहिए..?
यथार्थ में हर मनुष्य चाहे वो स्त्री जो अथवा पुरुष वह रहस्यमयी होता है और जीवन का सारा रोमांच इसी कारण है , इसलिए केवल स्त्री को रहस्यमयी बताना शुद्ध रूप से एक मिथक है..।
सच यह भी है कि स्त्री हमारे अपने देश मे भी खुले में पैर रखना सीख रही है और जीवन के हर क्षेत्र में उसकी व्यापक उपस्थिति से इनकार नही किया जा सकता है..।
स्त्री की इस नई सक्रियता और बढ़ते आत्म विश्वास को क्या सम्बन्धों का एक नया व्याकरण माना जा सकता है..?
प्रश्न विकट है और उत्तर भी स्त्री-पुरूष के संबंधों की गहरी अंधेरी खाई में दफन प्रतीत हो रहे हैं..।
ऐसे प्रश्नों का उभरना भी इस प्रश्न को जन्म देता है कि क्या स्त्री और पुरुष का बगैर मुखभेड़ के एक सहज रिश्ते में रहना संभव है..?
क्या हर बार स्त्रियों के लिए स्वतंत्रता उनको एक नई कालकोठरी में ढकेलने का प्रयास मात्र है..?
ऐसा लगता है कि ये सम्भव नही है कम से कम तब तक तो नही जब तक हम उसमे स्वाधीन व सहज चेहरा नही देख लेते..और यह तभी सम्भव है जब समाज का हर व्यक्ति स्त्री को आंशिक स्वतंत्रता के बजाय पूर्ण स्वतंत्रता देने को तत्पर होगा..क्योंकि अगर समाज के दृष्टिकोण मे बदलाव न आए तो शिक्षा और विज्ञान भी अंततः कातिल रूढ़ियों और नीच स्वार्थों के ही काम आते हैं..और ऐसे में स्त्रियों से केवल एक ही आह्वाहन किया जाना चाहिए ...
हे स्त्री,
मजबूत बनो..
इसलिए नही की तुम्हे दुनिया से लड़ना है..
बल्कि इसलिए क्योंकि दुनिया तुम्हे कमजोर देखना चाहती है..।
© -अंकेश वर्मा
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