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उधारू कलमकार🍁

जी हाँ,
मैं एक उधारू कलमकार हूँ
जैसे उधारू पैसे से
मिलता है सुख
पर शांति नही
खरीद लो मनमाफिक चीजें
पर उनपर संपूर्णता का दावा
उचित नही
कुछ ऐसा ही है
मेरे जीवन में
मैंने वो सब लिखा 
जो मुझे लिखना चाहिए
समाज की पीड़ा
देश की क्रांति संग देह की क्रांति
विश्व का प्रेम
जंजीर में जकड़ी स्त्री लिखी
लिखा टूटते और जुड़ते दिलो को
अशिक्षित गाँवों को
माँ के ममत्व को
पिता के झुके कंधे , 
भूखे और लाचार मजदूर को
और राजनीति के कालिख को भी
परन्तु केवल लिखा
किया कुछ नही
न समाज को बदला
न क्रांति का बना भागीदार
न सिखाया प्रेम विश्व को
न लड़ा समानता और स्वतंत्रता खातिर
ये कर पाता
तो संपूर्णता को प्राप्त करता
गर कर पाया तो ये तमगा मिलेगा
किन्तु अब तक जीवन की
मैंने अनगिनत अधूरी कहानियां लिखी
कई बिखरी कविताएं लिखी
जो अपूर्णता का द्योतक है
इसलिए संपूर्णता मिलने तक 
 मैं उधारू कलमकार हूँ..।

                - अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA