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ग़ज़ल..🍁

हाथ में हाथ ले साथ चलते हुए
जमाने भर की नजरों से संभलते हुए

होके तुम में फ़ना मेरी जां सच कहूं
तुम्हें चूम ही लूंगा गले मिलते हुए

क्या बताऊं तुम कितनी हसीं लग रही 
चाँद के करीब से निकलते हुए

साथ में मैं रहूं फिर भी दूरी लगे
बाँह भर लेना हमको मचलते हुए

है हकीकत या है ये सपना कोई
ख़्याल आया है यूँ ही टहलते हुए...

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इप्रेक्💖

लालकिले के प्रांगण में विचरते हुए वो मुझे इतिहास के कुछ रोचक किस्से सुना रही थी...  जिनमें कुछ सच तो कुछ झूठ थे... सब कुछ जानने के बावजूद भी मैं एक अच्छे साथी के दायित्व का निर्वहन करते हुए उसकी झूठी बातों को नजरअंदाज कर रहा था... पर एक बात थी जो मुझे बार-बार विचलित कर रही थी... दरअसल पूरी यात्रा की दौरान उसकी रेशमी जुल्फ़े उसके माथे पर आ जाती जिसे वो हर बार झटक देती... इसी बीच उसने अकबर के मयूर सिंहासन से जुड़े किस्से सुनने आरम्भ किये जिसे मैं सुनते हुए भी अनसुना कर रहा था.... असल में मयूर सिंहासन का नाम सुनते ही मेरे जेहन में शाहजहां की एक धुंधली तस्वीर उभरी.... और मैं आवारों की भांति उसकी जुल्फों में खोया निकल पड़ा लालकिला के रास्ते इस मुमताज के लिए एक नए ताजमहल के निर्माण को.....                                 -अंकेश वर्मा

हमारे किस्से..🍁

उसके आँखो की गुश्ताखियों की जो मनमानी है मेरा इतिबार करो ये जहां वालों बड़ा शैतानी है.। किसी के इश्क़ में बेतरतीब हो जाऊं ये आसां तो नही मेरे किरदार के माफ़िक मेरा इश्क़ भी गुमानी है.। मेरी कमबख्त आँखें उसके नूर को समेट नही पाती  उसका अक्स भी कुछ-कुछ परियों सा रूहानी है.। उसके माथे को चूमती जुल्फ़ें मुझे मदहोश करती हैं  किसी न किसी रोज़ ये बात उसको बतानी है.। गर वो मेरे सामने रोए तो मुझे रोने से इनकार नही मुझे तो अब सिर्फ उसी से निभानी है.। गर उसे मुझपे एतबार न हो तो कोई आफ़त नही मैं उसे जाने दूँगा कर्ण सा मेरा इश्क़ भी दानी है..।।                                                - अंकेश वर्मा

घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा