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मोहन आओ न....










अब प्रेम आंशिक हो चला है
हर कोई अमादा है
तुम्हारी नकल करने में
सबने तुम्हारी बात मानी
खूब प्यार बांटा
इतना कि खुद बंट गए
और प्रेम इतना है
कि रिश्ते रिसने लगे हैं
तुम कविता और कहानी में
सिमटते जा रहे हो
अब तो ग्रन्थ बन गए हो
लोगों को अच्छा लगता है
इन ग्रन्थों को पढ़ना
लेकिन वे इसे किताबी मानते हैं
इसके बावजूद भी कुछ हैं
सरफिरे से पागल
लेकिन वो प्रासंगिक नही हैं
कब तक गर्भगृह की शोभा बढ़ाओगे
मोहन आओ न फिर से
इन्हें प्रासंगिक बनाने
प्रेम से आशिक़ी बने प्रेम की
घर वापसी के लिए...!

                   -अंकेश वर्मा

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