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वक्त तुम्हारा..🍁


अनजाने में अनचाहे से
साथ किसी का मिलता है जब
सूनेपन का कोरा चादर
ओढ़ के सूरज सो जाता है..।

अंधियारे में सड़क किनारे
हाथ पकड़ के चलते जाना
मीठी तीखी बातों के संग
किस्से भी भरमार सुनाना
मिल-मिल कर जज्बात हमारा
खुद ही खुद में घुल जाता है
अनजाने में अनचाहे से
साथ किसी का मिलता है जब
सूनेपन का कोरा चादर
ओढ़ के सूरज सो जाता है..।

रात गए तक बातें करना
दिल को बड़ा हंसाता है
छोटी से छोटी गलती पर
भर कर आंख दिखता है
रिश्तों के उलझे धागों में
मनमर्जी से बिंध जाता है
अनजाने में अनचाहे से
साथ किसी का मिलता है जब
सूनेपन का कोरा चादर
ओढ़ के सूरज सो जाता है..।

उसकी गलती पर हंसता दिल
खुद पर बस खिसियाता है
सावन हो या जेठ दुपहरी
बरखा में खूब नचाता है
चाँद सरीख़ी बातें करता
पलकों में खो जाता है
अनजाने में अनचाहे से
साथ किसी का मिलता है जब
सूनेपन का कोरा चादर
ओढ़ के सूरज सो जाता है..।

बस्ती, गलियां और घरों में
नई उमंगे भर जाती है
तार तार हो मन की पीड़ा
खुशियों के सम्मुख आती है
घनी रात का जुगनू बन कर
पथ भी औचक बन जाता है
अनजाने में अनचाहे से
साथ किसी का मिलता है जब
सूनेपन का कोरा चादर
ओढ़ के सूरज सो जाता है..।

© Ankesh Verma

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

स्त्री विमर्श...🍁

रीति-रिवाज व परंपराएं सदैव धनात्मक नही हो सकती , कहीं न कहीं पर ये मनुष्य के लिए विनाशकारी सिद्ध होती हैं और जब बात स्त्रियों की हो तो समाज रीति-रिवाज , परम्पराओं व नैतिक मूल्यों के नाम पर उनके पैरों पर अपनी कसावट और भी मजबूत कर देता है..। स्वतंत्रता के नजरिये से स्त्री कभी भी अपने आप को शक्तिशाली नही महसूस कर पाई , यही कारण है कि स्त्री को " अंतिम उपनिवेश " की संज्ञा दी जाती है...। वहीं दूसरी ओर अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो वहाँ के स्त्रियों का मन स्वतंत्रता की आंच से भी भय खाता है..। उनको दी गई स्वतंत्रता के साथ एक अदृश्य भय हमेशा उनके साथ चलता है और अंततः उसका उपभोग भी एक आज्ञापालन ही होता है...। जहाँ स्त्रियों को स्वतंत्रता प्राप्त भी होती है वहाँ पर भी स्त्री-पुरुष संबंध काफी उलझे हुए होते हैं , जैसा कि पश्चिमी देशों में देखने को भी मिलता है...। दरअसल स्वतंत्र पुरूष यह तय नही कर पा रहा है कि स्वतंत्र स्त्री के साथ कैसे पेश आया जाए , वहीं दूसरी ओर अनेको स्त्रियां भी इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कैसे करें..इसलिए वो कभी -कभी अपने लिए...

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा