हमने सींचे थे गुलिस्तां किसी रोज़ को
फ़क़त क्या ही पड़ी थी जब मर जाना है
इक मंजिल को निकले थे घर से कभी
खबर भी न थी कि किधर जाना है
गोया कौमी इरादों से हाथ गंदे रहे
इसके हटते ही हमे भी सुधर जाना है
गाँव की याद आते ही वो किस्सा याद आता है
जबां पर एक ही रट थी कि शहर जाना है
बुलंदी की खोज को भी बस बिखरे रहे
कहाँ मालूम था कि बिखर के बिखर जाना है
जो जियेंगे भी तो वो ख़ुदा की नेमत से
मर कर भी सबको उधर जाना है ।
© अंकेश वर्मा
फ़क़त क्या ही पड़ी थी जब मर जाना है
इक मंजिल को निकले थे घर से कभी
खबर भी न थी कि किधर जाना है
गोया कौमी इरादों से हाथ गंदे रहे
इसके हटते ही हमे भी सुधर जाना है
गाँव की याद आते ही वो किस्सा याद आता है
जबां पर एक ही रट थी कि शहर जाना है
बुलंदी की खोज को भी बस बिखरे रहे
कहाँ मालूम था कि बिखर के बिखर जाना है
जो जियेंगे भी तो वो ख़ुदा की नेमत से
मर कर भी सबको उधर जाना है ।
© अंकेश वर्मा
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