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हे यार जुलाहे...🍁


हे यार जुलाहे संग तेरे 
मैं नदी किनारे आऊंगा 
तू करते रहना काम वहीं
मैं  बंसी मधुर बजाऊंगा
बिसुही के तीरे पड़े पड़े
हम बिरहा मिलकर गाएंगे
कुछ सत्तू होंगे कांदे संग
हम खुशी खुशी से खाएंगे
कुछ मछली होगी पानी में
कुछ नदी किनारे के श्रोते
ऊंचे बम्बे से कूद कूद 
हम खूब लगाएंगे गोते
एक पथिक वहां से गुजरेगा 
मल्हार के साथ गुजरने को
हम भी चढ़ लेंगे नैया में
नदिया के पार उतरने को
एक बात बता साथी मेरे 
इस नदी किनारे नाते को
क्या याद करेगा तू उस पल
मुझे देख शहर को जाते को
मैं आऊंगा वापस पक्का
संग तेरे खूब विचारना है
पर तब तक को अलविदा मित्र
खाली आँचल भी भरना है
बाबा की आंखें सूखी हैं
भाई भी होता व्याकुल है
कुछ नए सफर का स्वप्न सजा 
मन मेरा प्रतिपल आकुल है
पर याद रहेगा तो मुझको 
देखूंगा तुझको अम्बर में
नदिया का पानी उतरेगा 
होकर अदृश्य समंदर में
तेरे हाथों के कठिन ताप सा
मुझको पथ में जलना है
तब तक मीलों मुझको मीलों
मुझको मीलों चलना है ...।

© अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA