ये आलम कुछ यूं है की मन मेरा हैरान है
तमाम राहगीरों की अटकी पड़ी जान है
बीच पटरी पर पड़ा कटा सर देख रहा
न कमरे में रोशनी कोई न कोई रोशनदान है
जिन्होंने ज़हान के हिफाज़त की ली थी कसमें
बने तमाशबीन हैं , न कोई ईमान है
मरने पर मुआवज़े में लाखों का झुनझुना है
और तराज़ को मापने को न कोई मीज़ान है
ख़ुमारी यूँ है सब पर दहशत की या ख़ुदा
चीखों से तरबतर हैं, फिर भी बेजुबान हैं ।
© अंकेश वर्मा
तमाम राहगीरों की अटकी पड़ी जान है
बीच पटरी पर पड़ा कटा सर देख रहा
न कमरे में रोशनी कोई न कोई रोशनदान है
जिन्होंने ज़हान के हिफाज़त की ली थी कसमें
बने तमाशबीन हैं , न कोई ईमान है
मरने पर मुआवज़े में लाखों का झुनझुना है
और तराज़ को मापने को न कोई मीज़ान है
ख़ुमारी यूँ है सब पर दहशत की या ख़ुदा
चीखों से तरबतर हैं, फिर भी बेजुबान हैं ।
© अंकेश वर्मा
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