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राधा के प्रश्न...🍁

हे सखी अगर वो आएंगे
रूठी बंसी बजवाऊंगी
हो भले अड़े वो जाने को
रुकने को तनिक मनाऊंगी

निकट समय में कान्हा को
मथुरा भी हमे छुड़ाने हैं
कुछ प्रश्न मेरे अनसुलझे हैं
उनके उत्तर भी पाने है


क्या माखन मिश्री का चटक स्वाद
अब भी है उनका मनभावन?
है बहुत बड़ी मथुरा नगरी?
है वृन्दावन जैसा सावन?

क्या बरसाना की याद कभी
लाती है दुख के बादल को?
लाखों दासी से घिरे-घिरे
क्या भूल गए यमुना जल को?

क्या भूले-बिसरे भी उनके
स्मरण में आती नही रास?
या दरबारी षडयंत्रो में
आता वृंदावन अनायास?

बंसी के छुट जाने से
सुदर्शन हाथ में आने से
तीरों पर तीर चलाने से
या कूटनीति समझाने से

क्या जीवन ताजा होता है?
या प्रेम अभागा होता है?
रथचलित पांव जब रुकते है
क्या तभी सुभागा होता है?

क्या सच में सब जन का जीवन
है खण्डों में बंटा हुआ?
या सत्ता-सुख ही वो मद है
जिससे प्रेमी है कटा हुआ?

क्या राज काज अब कठिन हुआ?
या उनको कठिन सुहाता है?
या युद्धों की शंखनाद में
जीवन भागा जाता है?

ये प्रश्न मेरे अनसुलझे हैं
इनके उत्तर ही पाने हैं
जब कृष्ण यहां पर आएंगे
ये द्वंद उन्हें सुलझाने हैं..।

© अंकेश कुमार वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA