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सियासत....🍁



दोस्तों की टोली से आई
बुझी एक आवाज
भूखों से क्यूँ इतना 
कतराती है सरकार
क्या वो डरती है 
डरती है या छिपा रही है क्षोभ
न कुछ कर पाने की
या भूली है वो बात 
कुछ खोकर पाने की
या अपने जैसों को 
हजम नही कर सकती
या सब कर सकती है 
पर नही है करती
सरकारें तो बाबा होती हैं
ख़ुदा के नेमत से भी 
कुछ ज्यादा होती हैं
थे मौन सभी मुँह खोले थे
एक वृद्ध वहाँ बस बोले थे
सरकारें वेश्या होती हैं
दिखती नटखट 
काम नही पर
बिगड़े बोल में
मधुशाला है
कुर्सी के एक मोह ने उनके
दिल पर घूंघट डाला है
सरकारें ये ख़ुदा नही हैं
सरकारें ये नही हैं जोगन 
इनकी अपनी खुद की बंसी 
इनका खुद का है वृन्दावन
जग ले साथ नही चल सकती 
पापों के कोखों में पलती
एक यही तो सत्य जगत का
बाकी सब कुछ माया है
सरकारों का काम पूछने 
कौन अभागा आया है ।

© अंकेश वर्मा 

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA