जन-जन के जी गहराते हैं
हम मनुष्य जान न पाते हैं
हे कृष्ण जहाँ तुम रहते हो
मस्जिद से तुमको डर है क्या...
क्या वहाँ नही कोई गिरजा
या चादर से लिपटी माटी
है केवल यज्ञों की वेदी
या जलती बस घी की बाती
क्या कोई टोपीधारी भी
आता नही है अनायास
क्या हम जैसे मानुष के जस
करते रहते तुम ये प्रयास
की अपनी धरती पर हम
देंगे न तुमको दिवा-याम
क्या धर्म की नंगी तलवारों से
छिड़ा हुआ ये संग्राम
क्या तुम भी बाबर माफ़िक हो
या मिशनरियों के मधुर लोभ
क्या सच में तुम भूले प्रेम
करते रहते उन पर क्रोध
हे कान्हा गर ये मिथ्या है
तो मानूँ क्या मैं नव पथ को
ले साथ सभी रंगों को मैं
चढ़ जाऊं धर्म सुपथ रथ को
मैं निर्बल हूँ जो अपनों को
रंगों में बांटा पाता हूँ
गर करूँ प्रेम सब धर्मों को
कायर कहलाया जाता हूँ
हे कृष्ण तुम्हीं बतलाओ अब
कोई उचित मार्ग दिखलाओ अब
धर्म-धर्म की जय-जय कर
उत्पात मचा न पाउँगा
कटती है गर्दन कटे मगर
मैं धर्म नही ला पाऊंगा..।
- अंकेश वर्मा