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धर्मयुद्ध...🍁


जन-जन के जी गहराते हैं
हम मनुष्य जान न पाते हैं
हे कृष्ण जहाँ तुम रहते हो
मस्जिद से तुमको डर है क्या...
क्या वहाँ नही कोई गिरजा 
या चादर से लिपटी माटी
है केवल यज्ञों की वेदी
या जलती बस घी की बाती
क्या कोई टोपीधारी भी
आता नही है अनायास
क्या हम जैसे मानुष के जस
करते रहते तुम ये प्रयास
की अपनी धरती पर हम 
देंगे न तुमको दिवा-याम
क्या धर्म की नंगी तलवारों से
छिड़ा हुआ ये संग्राम
क्या तुम भी बाबर माफ़िक हो
या मिशनरियों के मधुर लोभ
क्या सच में तुम भूले प्रेम
करते रहते उन पर क्रोध
हे कान्हा गर ये मिथ्या है
तो मानूँ क्या मैं नव पथ को
ले साथ सभी रंगों को मैं
चढ़ जाऊं धर्म सुपथ रथ को
मैं निर्बल हूँ जो अपनों को
रंगों में बांटा पाता हूँ
गर करूँ प्रेम सब धर्मों को
कायर कहलाया जाता हूँ
हे कृष्ण तुम्हीं बतलाओ अब
कोई उचित मार्ग दिखलाओ अब 
धर्म-धर्म की जय-जय कर 
उत्पात मचा न पाउँगा
कटती है गर्दन कटे मगर
मैं धर्म नही ला पाऊंगा..।

- अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA