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समाज

मेरे जन्म से पहले पड़ोसी ने मांगी
मेरे भाई के मृत्यु की दुआ
जब हम स्कूल गए
तब हमें ताश के पत्तो में उलझाया गया
जब होस्टल गए
तब हुई कोशिश हमें बर्बाद करने की
पिता की नौकरी में
कइयों ने डाला अड़ंगा
कोशिश की गई हमसे
हमारी जमीन छीनने की
हमारे अच्छे नम्बर आने पर
हमें गालियां दी गई
हम वंचित रहे
अपने कई संवैधानिक अधिकारों से
पिता ने फसलें बोई
कुछ ने उन्हें जलाया
पिता ने संघर्ष किया
कुछ सफलताएं मिली
जीवन के कई बसन्त के बाद
पिता के संघर्षों
और उनकी स्नेहिल छाया में
हम अपनी समृद्धि को लालायित हुए
हुए उत्सुक व्यवस्थाओं को जानने को,
समझने को
हमने कई सपने देखे,
समृद्धि के सपने,
खुशहाली के सपने,
हमारे सपने सिर्फ हमारे
लेकिन पिताजी को
संतोष नही था
एक दिन यकायक
शिक्षा पर बहस के दौरान
उनके माथे पर उभरी थी
गंभीरता की रेखाएं
उन्होंने कहा था -
कि तुम्हारी शिक्षा केवल हमारी समृद्धि के लिए नही
अपितु आवश्यक है समाज की प्रगति के लिए भी ।
मैं अवाक था...
कौन सा समाज ?
किसकी प्रगति ?

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA