कभी कभी सोचता हूँ
काम न मिले वही बेहतर होगा
मैं दिनभर मजदूरी कर लूँगा
और रात में किसी सड़क किनारे
कहीं रोशनी में बैठ लिखूँगा
अपने और अपने जैसों की भूख को
कि ठंड में सड़क किनारे कैसे सोया जाता है
और कैसे न चाहते हुए भी
जगना पड़ता है रात भर
सवारी को ढोने के लिए
ताकि सुबह का खाना नसीब हो
पर मुझे लगता है
तब भी मैं नियति के सामने एक शर्त रखूँगा
कि तुम रोज शाम आओगी
चाँदनी की तरह
मेरे माथे को छू
मेरी थकान को हरने..!
-अंकेश वर्मा
काम न मिले वही बेहतर होगा
मैं दिनभर मजदूरी कर लूँगा
और रात में किसी सड़क किनारे
कहीं रोशनी में बैठ लिखूँगा
अपने और अपने जैसों की भूख को
कि ठंड में सड़क किनारे कैसे सोया जाता है
और कैसे न चाहते हुए भी
जगना पड़ता है रात भर
सवारी को ढोने के लिए
ताकि सुबह का खाना नसीब हो
पर मुझे लगता है
तब भी मैं नियति के सामने एक शर्त रखूँगा
कि तुम रोज शाम आओगी
चाँदनी की तरह
मेरे माथे को छू
मेरी थकान को हरने..!
-अंकेश वर्मा