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गाँव💖


गाँव देखने आये हो..!

क्या कहा..थोड़ा जोर से कहो..

गाँव पर लिखना भी  चाहते हो..??

ठीक है लिखना जरूर लिखना..

किन्तु मेरी इक फरियाद है..

जब तुम लिखना तो ये जरुर लिखना...


कि किस भांति यहाँ पलते है बच्चे

गाँव भर के लोगों के हाथों से
लिखना की बूढ़े यहाँ भार नही है
अपितु परिवार की सबसे खास कड़ी हैं
लिखना की माँ यहाँ शब्द न होकर संसार है
यहाँ पिता बच्चों को पीटता भी है 
क्योंकि उसे उनके सुनहरे कल की चिंता है
बहन यहाँ केवल राखी के दिन नही होती
बल्कि वह छाया है भाई के जीवन का
लिखना वो जो चावल होता है 
वो असल मे धान है जो तुमको नही पता
लिखना भरी दुपहरी में किसान के टपकते पसीने
बताना की बच्चे खप गए है 
पढ़ाई और कंचे छोड़ भट्ठे की आंच में
बंसी की माँ को भी लिखना 
जिसका इकलौता बेटा उसकी दवा के पैसे लेने 
गया है शहर
उसे बुढ़ापे में अकेला छोड़
लोग मर रहे है बिना अपनी उम्र पूरी किये
जिनके घर वालो को ये भी नही है मालूम कि मर्ज क्या थी
बताना की यहाँ अब सामन्तवाद नही रहा
बस बाबू साहब की शादी में खाने के लिए
दिन भर काम करना है गरीब को
और सबसे अंत मे दिखाना कि
किस भांति यहाँ की घटिया राजनीति
खा गई है है गाँव के सुनहरे सपनों को
गर ये सब लिख सको तुम
इन संवेदनाओ के साथ
तो लिखना गाँव को कागज पर
नही तो जाकर खोजना गाँव को शहर में
किसी बड़े ऑफिस की मोटी फाइल में दबा होगा..।।

                                  - अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA