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तुम आज आई ही हो तो सुनती जाओ..🍁


तुम आज आई ही हो तो मेरी भी कुछ सुनती जाओ
मेरे हसरतों के कुछ अनकहे किस्से सुनती जाओ
कभी कभी ये रातें भी दिल में काटें सी चुभती हैं
तुम्हारी बेरुखी ही सही इन्हें थोड़ा तुम भी चुनती जाओ
ये गमगीन शामें अब मुझे बहुत रुलाती हैं
भीड़ जब-तब दिल का तपन बढ़ाती है
खुशियां तो रूठी है हमसे बस दुख ही बचे है
तुम जाओगी ये तय है , थोड़े दुख तुम भी लेती जाओ
अहसान फरामोश से लगते है ये ज़माने वाले
सुनाते तो है , सुनते नही मेरी ये ज़माने वाले
मेरी खुशी और दुख की ये परवाह नही करते
मीठे बोल न सही माना , तुम थोड़ा झगड़ा ही करती जाओ
बेमतलब का झगड़ना और फिर मान जाना पल भर में
अब हमसे ये ना होगा तुम ये भी सुनती जाओ
मेरी हसरतों के कुछ अनकहे किस्से सुनती जाओ
तुम आज आई हो तो मेरी भी कुछ सुनती जाओ..!!

                                      -अंकेश वर्मा

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घर मे घर..🍁

कभी बँटवारे  तो कभी घर के  भीतरी दीवारों का द्वन्द कभी अपनी अवहेलना तो कभी पिता की तानाशाही से कभी माँ के साथ को अथवा बहन के भीगे नयनों से या अपनी सत्ता स्थापित करने को कई बार खुद से भी बिगड़ते हैं रिश्ते बच्चे जब बड़े हो जाते है घर मे कई घर हो जाते हैं..!                    - अंकेश वर्मा 

गज़ल..🍁

उसने हमपर रहमत की हम बिखर गए रोका-टोका राह शजर* की बिखर गए.। हुए जुनूनी बस्ती-बस्ती डेरा डाला राह कटीली जंगल घूमे बिखर गए.। उसने की गद्दारी बेशक अपना माना हममे थी खुद्दारी फिर भी बिखर गए.। साथ रहे और उसके दिल पर जुम्बिश* की खुद को दिया अज़ाब* और हम बिखर गए.। उसने उनको अपनाया जिनको चाहा उसकी जीनत उसकी जन्नत हम बिखर गए.। सुना बने वो जिनपर उसने हाथ रखा हम ही एक नाक़ाबिल थे सो बिखर गए.।। शजर*- पेड़ जुम्बिश*- हलचल अज़ाब*- पीड़ा                               - अंकेश वर्मा

असीमित इच्छाएं ...🍁

तुम्हारे अविश्वास की कालकोठरी में मैं अनहोनी को होनी मानता था तुम्हारा होना सावन का आभासी था मैं तुमसे मिलकर, अपना सर्वस्व खोना चाहता था ठीक उसी भांति, जैसे ओस की बूंद सूखकर खो देती है अपना स्वरूप पुनः सृष्टि के निर्माण को । © ANKESH VERMA